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________________ तितिक्षा की कसौटियां १७ आचार्य ने कहा-'अभी तक तुम इसके हृदय को नहीं पकड़ पाए। जब तक हृदय पकड़ में नहीं आता तब तक कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। तुम इसके हृदय तक पहुंचो। परीषह का जो प्रतिपादन किया जा रहा है, उसका उद्देश्य है वर्धतां शक्तिरंतस्था, वर्धतां च मनोबलम् । वर्धतामंतरानंदस्तत् सोढव्याः परीषहाः।। न कष्टं नाम कष्टाय, कष्टापोहाय तमतम् । अस्मिन् कष्टाकुले लोके, कष्टमुक्तेरसौ पथः।। आंतरिक शक्ति बढ़े, आंतरिक आनन्द्र बढ़े इसलिए कष्टों को सहन करना जरूरी है। कष्ट को कष्ट के लिए नहीं किन्तु कष्ट को मिटाने के लिए कष्ट को सहना जरूरी है। यह सारा संसार कष्ट से व्याकुल है। यह परीषह को सहने का मार्ग, कष्ट-मुक्ति का मार्ग है कष्टों को निमंत्रण देने का मार्ग नहीं है। यह बात अत्यन्त रहस्यपूर्ण है। यदि व्यक्ति रहस्य तक नहीं पहुंचता है तो उसे यह मार्ग अटपटा सा लगता है, दुष्कर लगता है। अगर वह रहस्य तक पहुंच जाए तो उसे लगेगा-यह जीवन का बहुत सुन्दर दर्शन है। प्रकृति में जीए एक अमेरिकन उद्योगपति बीमार पड़ गया। डाक्टरों को दिखाया, चिकित्सा कराई, अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का प्रयोग किया किन्तु वह स्वस्थ नहीं बना। आखिर वह एक प्राकृतिक चिकित्सक की शरण में गया। प्राकृतिक चिकित्सक ने कहा-महाशय! प्रतिदिन तीन घंटा गरम पानी के टब में नहाओ, स्वस्थ हो जाओगे। वह तीन घण्टा गरम पानी में स्नान करने लगा। कुछ दिन में ही वह स्वास्थ्य का अनुभव करने लगा। एक दिन स्नान करते-करते उसके मन में विकल्प उठा-यह कैसी मूर्खता है! मकान वातानुकूलित और फिर तीन घण्टा गर्म पानी में स्नान करना! उसने वातानुकूलन समाप्त कर दिया; वह प्राकृतिक वातावरण में रहने लगा। तीन घण्टा गर्म पानी में बैठने की जरूरत भी समाप्त हो गई। एक व्यक्ति बाहरी साधनों का प्रयोग कर भूख, प्यास आदि पर विजय पाने का प्रयत्न करता है और एक व्यक्ति अपने शरीर की क्षमता को बढ़ा कर। यदि शरीर की क्षमता बढ़ती है तो सर्दी गर्मी बहुत नहीं सताती है। जितने भी बाहर से आने वाले द्वन्द्व हैं, उन सब द्वन्द्वों को झेल सकें ऐसे शरीर का निर्माण कर लेना, इतनी शरीर की क्षमता को बढ़ा लेना कष्टों को सहन करने का एक मार्ग है। कष्टों को सहने का दूसरा मार्ग है-बाहरी साधनों का प्रयोग। उनसे व्यक्ति का शरीर कमजोर बन जाता है, उसकी सहन करने की शक्ति कम हो जाती है, चुकती चली जाती है। व्यक्ति इस कष्टाकुल लोक में जी रहा है। प्रत्येक आदमी के शरीर में रोग के कीटाणु भरे पड़े हैं किन्तु जब तक उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता-मजबूत है तब तक वह बीमार नहीं बनता। जब रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, व्यक्ति अकारण बीमार बन जाता है। बाहरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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