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________________ तितिक्षा की कसौटियां उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन है परीषह प्रविभक्ति । आचार्य ने परीषह प्रविभक्ति का प्रतिपादन किया। एक प्रबुद्धमति शिष्य बोला - गुरुदेव ! हमें बताया गया है— धर्म की आराधना आनन्द, शक्ति और ज्ञान के लिए है। हमारी आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द है । हमारे भीतर आनन्द का सागर लहरा रहा है । हम दीक्षित हुए हैं आनन्द के लिए और आप कह रहे हैं कष्टों को सहन करो, कष्टों को झेलो, कठिनाईयों को झेलो । क्या कष्ट के द्वारा आनन्द पाया जा सकता है? अज्ञान के द्वारा ज्ञान को नहीं पाया जा सकता । कष्ट के द्वारा भी आनंद की प्राप्ति कभी संभव नहीं । फिर यह परीषह का प्रवचन क्यों ? जिज्ञासा महत्वपूर्ण थी। प्रश्न भी सीधा नहीं, टेढ़ा था । परीषह : तितिक्षा के लिए ३ आचार्य ने बहुत शांतभाव से उत्तर दिया- 'वत्स! तुम्हारा प्रश्न ठीक है पर अभी तुम रहस्य को समझ नहीं पाए हो। तुम रहस्य को समझने का प्रयत्न करो। परीषह कष्ट सहन करने के लिए नहीं किन्तु तितिक्षा को बढ़ाने के लिए है ।' 'गुरुदेव ! तितिक्षा का क्या अर्थ है?” 'द्वन्द्वों को सहन करने का नाम है तितिक्षा । हमारा जगत् द्वन्द्वात्मक जगत् है। सर्दी और गर्मी, भूख और प्यास, रति और अरति — ये सारे द्वन्द्व हैं। सारे वातावरण में द्वन्द्व भरे हुए हैं । जब तक सहन करने की क्षमता नहीं बढती तब तक व्यक्ति सुख का जीवन नहीं जी सकता।' 'गुरुदेव ! सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास - इन सब द्वन्द्वों को सहन करने के लिए परीषह-प्रविभक्ति अध्ययन की क्या आवश्यकता है? इसके लिए तो बहुत अच्छे साधन प्राप्त हैं। भूख लगी और रोटी खा ली, भूख मिट जाएगी। प्यास लगी, पानी पिया और प्यास मिट जाएगी। सर्दी आई और गर्म कपड़े पहने, सर्दी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। सर्दी ज्यादा हो तो हीटर लगा लो, गर्मी ज्यादा हो तो मकान को वातानुकूलित कर लो। मनुष्य बुद्धिमान् प्राणी है। उसने ऐसे उपायों का विकास किया है कि इन दोनों द्वन्द्वों का कोई वश नहीं चलता । फिर यह कष्ट सहने की बात क्यों ? इस वैज्ञानिक युग में इतने कष्ट सहन करने की बात कहां तक युक्त है? " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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