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संबंधों के आलोक में गुरु और शिष्य
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चौथा काम है-संस्कार निर्माण या स्थिरीकरण, संस्कारों का निर्माण करना या स्थिरीकरण करना। साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं को धर्म में बनाए रखना, टिकाए रखना।
पांचवां काम है-व्यवस्था बनाए रखना। आचार्यश्री ने योगक्षेम वर्ष में अनेक वर्ग बना दिए, वर्ग के संयोजक बना दिए, सतर्कता आयोग और प्रशिक्षण आयोग बना दिया। योगक्षेम वर्ष की व्यवस्था बन गई। व्यवस्था में कुछ कठिनाइयां होती हैं, व्यवस्था को सहन करना भी कठिन होता है। व्यवस्था का नाम ही कठिनाई है पर व्यवस्था होती अच्छी है। व्यवस्था का मतलब है-एक विशेष प्रकार की अवस्था। विशेष प्रकार की अवस्था का निर्माण करना आचार्य का दायित्व है।
- संघ के लिए ये पांच कार्य आवश्यक होते हैं-अनुयोग यानी आगम परम्परा की सुरक्षा, नीति का निर्धारण, शिक्षा, संस्कार का निर्माण या स्थिरीकरण
और व्यवस्था। ये पांचों कार्य एक व्यक्ति ही करे, यह सम्भव नहीं, पर कम से कम पहले दो तो आचार्य के लिए अनिवार्य हैं, जिन्हें दूसरे को सौंपा ही नहीं जा सकता। तीन ऐसे हैं, जिन्हें चाहे तो आचार्य स्वयं करें या किसी दूसरे से करवाए।
__ ये सारी व्यवस्थाएं जब स्वस्थ रूप में चलती हैं तो गुरु और शिष्य का सम्बन्ध स्वस्थ रहता है। गुरु और शिष्य के सम्बन्धों की स्वस्थता से ही स्वस्थ और शक्तिशाली संघ का निर्माण संभव बन सकता है।
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