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महावीर का पुनर्जन्म
होता है। सहन करना बहुत बड़ी बात है। जो सहन करना नहीं जानता वह नेतृत्व करना नहीं जानता।
ममता और समता-ये दो सूत्र भी शिष्य की चेतना को बांधने के मुख्य तत्व बनते हैं।
बात पूरी हो गई। आचार्य और शिष्य का सम्बन्ध स्पष्ट हो गया। शिष्य का आचार्य के प्रति कर्त्तव्य और आचार्य का शिष्य के प्रति कर्त्तव्य सपष्ट हो गया। शिष्य का आचार्य से जुड़ना और आचार्य का शिष्य से जुड़ना तभी सम्भव है जब इन गुरों का उपयोग किया जाए।
उत्तराध्ययन सूत्र का पहला अध्ययन है-विनयश्रुत। उसमें अनुशासन के गुर बतलाए गए हैं, अनुशासन के विषय में बहुत महत्वपूर्ण चिन्तन दिया गया है। उसके आधार पर ये सारे निष्कर्ष निकाले गए हैं-शिष्य आचार्य के साथ कैसा व्यवहार करे? दोनों ओर जो एक आध्यात्मिक मार्ग है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। लौकिक मार्ग में ऐसा नहीं होता। लौकिक मार्ग में जो शक्तिशाली हो गया, वह बड़ा हो गया। वह छोटों के साथ चाहे जैसा व्यवहार करे किन्तु आध्यात्मिक मार्ग में गुरु और शिष्य-दोनों अनुशासित होते हैं। राजतन्त्र में ऐसा नहीं होता। राजतन्त्र में शासक हो और उच्छृखल न हो, सौभाग्य से ही ऐसा मिल सकता है। अन्यथा उसके उच्छृखल होने में कोई बाधा नहीं है। धर्म-शासन में ऐसा नहीं हो सकता इसलिए आचार्य और शिष्यों के सम्बन्ध को जानना बहुत जरूरी है। आचार्य के दायित्व
आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ संघ को जो रूप दिया और उसके लिए एक आचार्य की जो व्यवस्था दी, वह अद्भुत है। तेरापंथ के आचार्य की अनेक अर्हताएं होती हैं। उनमें पहली बात है आगम परम्परा की सुरक्षा। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। आगम की परम्परा तेरापंथ का आधार है। उसकी अगर सुरक्षा नहीं होती है तो संघ की स्थिरता में बाधा पहुंचती है। दर्शन या मूल आधार के ठोस बने बिना संघ रहता नहीं है। रहता भी है तो बिखरा हुआ रहता है। इसीलिए आचार्य की कसौटी बन गई-आगम परम्परा की सुरक्षा। आगम परम्परा की सरक्षा करने वाला ही आचार्य होता है।
दूसरा काम है-नीति का निर्धारण। संघ में नीति का निर्धारण कौन करे? आचार्य नीति के नियामक होते हैं। वे उस नीति की क्रियान्विति चाहे जिससे करवाएं पर नीति का सूत्र उनके हाथ में रहेगा। जयाचार्य ने कहा-संपद राखो हाथ-संपद को आचार्य हाथ में रखे। इसका अर्थ है-आचार्य मूल डोर को हाथ में रखे फिर चाहे क, ख, ग किसी से भी काम ले। आचार्य नीति निर्धारण का अधिकार किसी को दे नहीं सकते और अगर देते हैं तो वह संघ टिकता नहीं है। इसीलिए कहा गया-अनुयोगकृत् आचार्य, नीतिकृत् आचार्य, नीतिनियामक आचार्य।
तीसरा काम है-संघ में शिक्षा का विकास करना। यह कार्य आचार्य स्वयं करें। या चाहे जिससे करवाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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