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________________ संबंधों के आलोक में गुरु और शिष्य गुरु का परामर्श सदा लिया जाता है किन्तु ऐसे शिष्य भी होते हैं जिनका मत और परामर्श भी लिया जाता है। 'गुरुदेव! अगर आप चाहें तो मैं थोड़ी प्रार्थना करूं।' 'बोलो! क्या कहना चाहते हो?' गुरुदेव! शिष्य की चेतना को बांधने के पांच उपाय हैं शिष्य को निष्पत्ति तक ले जाना ४. ममता वात्सल्य ५. समता सहिष्णुता निष्पत्तिकारकत्वं च, बध्नाति शिष्यचेतनाम् । वात्सल्यं च सहिष्णुत्वं, ममता समता तथा। निष्पत्तिकारकता शिष्य की चेतना को बांधने का पहला उपाय है निष्पत्तिकारकत्व, शिष्य को निष्पत्ति तक ले जाना। स्थानांग सूत्र में चार प्रकार के मेघ बतलाए गए हैं। उनमें दो प्रकार ये हैं-एक मेघ धान्य को उत्पन्न करता है, निष्पन्न नहीं करता। एक मेघ धान्य को उत्पन्न भी करता है और निष्पन्न भी करता है। मेह बरसा। फसल बो दी गई। फसल उपज गई, उत्पन्न हो गई। फसल खड़ी हो गई किन्तु बाद में मेह बरसा ही नहीं। खड़ी फसल नष्ट हो गई, अनाज । नहीं हुआ। उत्पन्न करना एक बात है और निष्पन्न करना बिल्कुल दूसरी बात है। निष्पत्ति तक पहुंचा देना, फसल को पूरा पका देना फसल उत्पन्न करने से अधिक मूल्यवान् है। आचार्य शिष्य को दीक्षित करता है। इसका अर्थ है-वह शिष्य को उत्पन्न करता है। आचार्य दीक्षित करने के बाद उसे रामभरोसे या भागभरोसे नहीं छोड़े। शिष्य जाने, उसका भाग्य जाने, ऐसा चिन्तन एक आचार्य नहीं कर सकता। उसका दायित्व है-शिष्य को संयम में रचा-पचा देना, उससे होने वाली निष्पत्ति से परिचित करा देना। निष्पत्तिकारक आचार्य शिष्यों के साथ शीध्र संबन्ध स्थापित कर लेता है। वात्सल्य और सहिष्णुता दूसरा उपाय है-वात्सल्य। शिष्य की प्रीति और गुरु का वात्सल्य-दोनों का योग मिले तो संबंध स्थापित हो सकता है। इसका हार्द है-शिष्य की परिस्थितियों को देखना और उनके प्रति अपना हृदय उंडेल देना। तीसरा उपाय है-सहिष्णु होना। यह बात अटपटी सी लगती है। सहिष्णु शिष्य बने या गुरु? सरदारशहर के एक प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा था-एक आचार्य में तीन बातें होनी चाहिए-क्षमता, समता और ममता। जिस संघ का आचार्य सहिष्णु नहीं होता, वह संघ बिखर जाता है। आचार्यवर ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा-'मुझे जितना सहना पड़ता है उतना एक छोटे साधु को भी नहीं सहना पडता।' आचार्य को बहत सहन करना होता है। बहत बार ऐसी स्थिति बन जाती है कि छोटा साधु तो बोल जाता है, आचार्य को मौन रहना पड़ता है। कहां बोलना और कहां मौन रहना-इसका विवेक आचार्य को करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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