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प्रवचन माता
शिष्य के मन में प्रश्न उभरा और वह तत्काल गुरु की सन्निधि में पहुंच गया। गुरु को वंदना कर पूछा-'भंते! धर्म क्या है?'
सत्यं धर्मस्य किं नाम, जिज्ञासितमिदं मम। गुरु बोले-'अशुभ के साथ शुभ का जो संघर्ष चल रहा है, वह धर्म है।'
अशुभेन शुभस्याऽयं, संघर्षः धर्म उच्यते।। __ अशुभ और शुभ-ये दो तत्त्व हैं। भारतीय दर्शन में इनकी मीमांसा हुई है। पश्चिमी दर्शनों ने भी इसकी काफी मीमांसा की है कि अशुभ आया कहा से? किसने इसे पैदा किया? क्या यह ईश्वर की देन है? ईश्वर ने अशुभ को पैदा किया, यह बात समझ में नहीं आती। क्योंकि ईश्वर शुभ की ओर ले जाना चाहता है, फिर अशुभ को पैदा ही क्यों करेगा? यदि अशुभ पहले से था तो ईश्वर का क्या? यह बहुत लंबी दार्शनिक चर्चा है।
___ हमारे मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी शुभ और अशुभ-ये दोनों वृत्तियां सक्रिय हैं। शरीर, मन और वाणी के स्तर पर ये चल रही हैं। शुभ
और अशुभ का संघर्ष निरंतर चल रहा है। हम अशुभ को अस्वीकार नहीं कर सकते। उसका अस्तित्व है, पर वह शाश्वत नहीं है। यदि अशुभ शाश्वत होता तो धर्म और दर्शन की आवश्यकता ही नहीं होती। यदि अशुभ शाश्वत होता तो दर्शन निराशावादी हो जाता। एक स्वीकार है कि अशुभ है और दूसरा स्वीकार है कि वह शाश्वत नहीं है। तीसरा स्वीकार है कि मनुष्य में अशुभ को निरस्त करने की क्षमता है इसीलिए अशुभ के साथ सतत संघर्ष चल रहा है। मनुष्य अशुभ को खत्म करना चाहता है। अशुभ के साथ निरंतर युद्ध–यही है धर्म की कहानी। चार स्तर
हम चार स्तरों पर शुभ और अशुभ की मीमांसा करें। काया का अशुभ, वाणी का अशुभ, मन का अशुभ और भावना का अशुभ। शरीर का शुभ और अशुभ। शरीर का अशुभ है शरीर के साथ मूर्छा का होना, प्रमाद का होना। जहां-जहां शरीर का प्रमाद है वह अशुभ है और जहां-जहां शरीर का अप्रमाद है वह शुभ है। इसीलिए कहा गया है कि हाथ का संयम करो, पैर का संयम करो, इन्द्रियों का संयम करो। संयम की बात इसलिए कही कि हाथ के द्वारा भी अशुभ होता है। क्रोध आया, हाथ उठा, यह हाथ का अशुभ है। बाहुबली के पैर
के साथ खडे थे। अशभ घटित हो रहा था। अहंकार मिटा. पैर उठे.
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