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शरीर एक नौका है
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निकाले। उन रसायनों को अनाड़ी चूहों में प्रविष्ट किया। वे अनाड़ी चूहे प्रशिक्षित जैसा व्यवहार करने लग गए। वैज्ञानिकों ने कहा--मस्तिष्क को नियंत्रण करने वाला सूत्र हाथ लग गया। मनुष्य का मस्तिष्क इतना जटिल है कि उसका सूत्र कब हाथ लगेगा, कहा नहीं जा सकता। धर्म और अध्यात्म के लोगों ने उन सूत्रों को खोजा, जिनसे मस्तिष्क का नियंत्रण किया जा सकता है। इस संदर्भ में शरीर के एक अवयव की चर्चा बहुत महत्त्वपूर्ण है। उपस्थ-जननेन्द्रिय को काम-विकार का साधन माना जाता है किन्तु यही साधना का बहुत बड़ा सूत्र भी है। आज के शरीरशास्त्री मानते हैं-आदिम मस्तिष्क, जिसमें पाशविक वृत्तियां संचित हैं, उसका संचालन उपस्थ या स्वास्थ्य केन्द्र के द्वारा होता है। इन दोनों का अन्तःसंबंध है। यदि उस पर प्रयोग किया जाए, नीले रंग का ध्यान किया जाए तो वह विकास का स्रोत बन सकता है। हमारी धारणा उसके प्रति दूसरे प्रकार की है। यदि वह बदल जाए तो चेतना के बहुत सारे स्रोत खुल जाएं। इक्कीसवीं शताब्दी में
शरीर के रहस्यों को सुलझाना बड़ा मुश्किल है। शरीर के एक प्रकरण को पढ़ना भी आसान नहीं है। हरिभद्रसूरि ने चौदह सौ चम्मालीस प्रकरण लिखे. जयाचार्य ने तीन लाख पद्य लिखे, हेमचन्द्र ने विशाल साहित्य रचा, पर वह उतना है, जितना शरीर के एक अंगूठे के बारे में कहा जाए। हर कोशिका का अपना बिजलीघर है, अपना मस्तिष्क है। हर कोशिका अपना रसायन पैदा करती है। इन संदों में शरीर को देखने का एक नया दृष्टिकोण विकसित करना होगा, धर्म को नया रूप देना होगा। आज धर्म को नए संदर्भ में व्याख्यायित किया जा रहा है। यदि पुरानी बातें पुराने संदर्भो में बताई जाती तो आज का युवा सोचता-सतरहवीं शताब्दी की बातें बताई जा रही हैं। धर्म के आधुनिकीकरण से हमने कुछ खोया नहीं है किन्तु मूल ज्यादा अभिव्यक्त हुआ है। यह दृष्टिकोण विकसित नहीं होता तो शरीर को नौका समझना मुश्किल होता, उसे गंदगी और अशुचि का ढेर मानना ही पर्याप्त होता। बदली हुई परिस्थितियों में धर्म ने शरीर को नए संदर्भ दिए हैं, उससे वह सतरहवीं-अठारहवी शताब्दी के लिए नहीं, इक्कीसवीं शताब्दी के लिए भी महान उपयोगी बना हुआ है। आज उस धर्म के साथ हम जी रहे हैं, जिसके साथ सुरभि है, नया उच्छ्वास है, नया जीवन और ताजगी है।। 'शरीर एक नौका है' इसकी नए संदर्भ में प्रस्तुति उसका एक निदर्शन है।
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