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________________ ३२६ महावीर का पुनर्जन्म जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है। महान मोक्ष की एषणा करने वाले जीव इस नौका से संसार-समुद्र को तर जाते हैं' सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। ससारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।। शरीर का कितना महत्त्व है। हम उसे अशुचि, मल-मूत्र का भंडार मानकर रुक न जाएं, हाड़-मांस का पुतला मानकर भटक न जाएं। यह एक कोण है, किन्तु उसे दूसरे कोण से भी देखें। इसी शरीर में शिव की उपलब्धि का सामर्थ्य विद्यमान है। उपाध्याय विनयविजयजी का यह श्लोक कितना मार्मिक है केवलमलयमपुद्गलनिचये, अशुचीकृतशुचिभोजनसिचये । वपुषि विचिन्तय परमिह सारं, शिवसाधनसामर्थ्यमुदारम् ।।। यदि हमें समुद्र के पार जाना है तो नौका का सहारा लेना होगा। हम इस शरीर रूपी नौका का संसार सागर को तरने के लिए उपयोग करें। इसका कितना महत्त्व है, इसे समझें। प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में शरीर को समझने का नया दृष्टिकोण विकसित हुआ है। प्रश्न है-हम शरीर का लाभ कैसे उठाएं? उसका दुरुपयोग होता है पर सदुपयोग कैसे करें? पांच इन्द्रियां हैं। उनका दुरुपयोग है तो सदुपयोग भी है। जिस आंख के द्वारा हम विकार की स्थिति में जा सकते हैं, उस आंख के द्वारा हम निर्विकार चेतना की स्थिति में भी जा सकते हैं। एक प्रयोग बतलाया गया अलक्ष्य योग का। भीतर में यह लक्ष्य बनाया जाए कि मुझे कुछ नहीं देखना है। इस स्थिति में आंख खुली है, आप सबको देख रहे हैं, फिर भी कुछ दिखाई नहीं देगा। यह अलक्ष्य योग का प्रयोग है-सब कुछ आंख में आ रहा है, पर दिखाई कुछ भी नहीं दे रहा है। अनिमेषप्रेक्षा का प्रयोग भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। खुली आंख से ध्यान करें। लक्ष्य को भीतर से जोड़ लें और बाहर खुला रहे, देखने वाला देखे, पर कुछ भी पता नहीं चलेगा। ये कान कितना भटकाते हैं। मनुष्य रेडियो और टी.वी. के गाने सुनने का कितना अभ्यस्त है। हम कान को अन्तर्नाद में लगा दें, भीतर की आवाज सुनने लग जाएं, बाहर का कोई भी शब्द सुनाई नहीं देगा। अन्तर से जुड़ें बहुत सारे लोग पूछते हैं-'आप इतने लोगों से घिरे रहते हैं। निरन्तर कोई न कोई आता रहता है। आप काम कैसे कर पाते हैं? हजारों आदमियों के बीच गंभीर से गंभीर विषय पर लिखा जा रहा है। यह कैसे संभव होता है, क्या चिन्तन का क्रम टूटता नहीं है?' मैंने कहा-'चिन्तन तब टूटता है जब उसे जोड़ा जाए। कोई जोड़े तो टूटने का प्रसंग आए। जो सहज अन्तर से जुड़ गया, उसके लिए बाह्य परिवेश कभी व्यवधान नहीं बनता।' ये इन्द्रिया, यह शरीर-भटकाते भी हैं और तारते भी हैं। वे ही इन्द्रिया पार पहुंचाने वाली हैं और वे ही इन्द्रियां डुबोने वाली हैं। तारने वाला और डुबोने वाला अलग नहीं है। प्रश्न यह है-हम किस स्विच को ऑफ करें और किसे ऑन करें। इतनी-सी बात समझ में आ जाए तो नियंत्रण का सूत्र हाथ लग जाए। वैज्ञानिकों ने चूहों पर प्रयोग किए, उन्हें प्रशिक्षित किया, उनके रसायन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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