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शरीर एक नौका है
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का भाव है, अनुकम्पा का भाव है, उनके प्रति संवेदनशीलता है, मैत्री का भाव है तो सात वेदनीय का बंध होगा। जब यह सात वेदनीय कर्म विपाक में आएगा, सुख देगा। तुम अच्छे विचार करो, अच्छा सोचो, अच्छा स्राव होगा और वह तुम्हें सुख देगा । जैन साहित्य में एक अनूठी बात आती है। दो क्रियाएं मानी गई— ईर्यापथिकी और सांपरायिकी । ईर्यापथिकी क्रिया वीतराग में होती है। वीतराग वह अवस्था है, जहां बुरा विचार आता ही नहीं है, बुरा भाव पैदा ही नहीं होता । न राग, न द्वेष, केवल पवित्र मनोभाव, आत्मा की अनुभूति । कहा गया- ईर्यापथिकी क्रिया में जो पुद्गल आते हैं, भीतर में जो रसायन बनते हैं, इतना सुख देते हैं, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। जैन साहित्य में सर्वाधिक सुख सर्वार्थसिद्ध के देवताओं का माना जाता है किन्तु ईर्यापथिकी क्रिया वाला मुनि सर्वार्थसिद्धि के देवताओं से भी ज्यादा सुख का अनुभव करता है । प्रश्न होता है - वह सुख आया कहां से? कौन है सुख देने वाला? वह सुख कहीं बाहर से नहीं आया, किन्तु अपने भीतर से ही उपजा है। अपनी आत्मा की पवित्रता से उसने ऐसे रसायनों को निर्माण किया, जिससे सुख का स्रोत फूट पड़ा।
भीतर से उपजता है सुख
श्री मज्जयाचार्य का एक अध्यात्म अनुप्राणित पद्य है- जेहवो सुख नहीं सुर इन्द्रा ने, नहि चक्री वर राया। एक वर्ष के दीक्षित मुनि को इतना सुख मिल जाता है जितना किसी चक्रवर्ती या देवता को भी नहीं मिलता। यह सुख कहीं बाहर से आता नहीं है, अपने भीतर से उपजता है । यह कोरी कल्पना नहीं है, वैज्ञानिक सचाई है। यदि हमारा मन शान्त है, भावनाएं पवित्र हैं, विचार विधायक हैं तो सुख का स्रोत फूट जाएगा। किसी के प्रति बुरा विचार, बुरा चिन्तन और बुरी भावना नहीं है तो दुःख कहां से आएगा? आत्मलीनता की अवस्था में जो सुख मिलता है, वीतराग को जो सुख मिलता है, वह अनाबाध होता है । वीतरागता का मतलब है पवित्र भावना का सुख, पवित्र विचारों का सुख । वह हमारे भीतर है पर हम उसे जान नहीं पा रहे हैं। कस्तूरी की गंध भीतर से आ रही है और बेचारा हिरण उसकी खोज में चारों ओर चक्कर लगाता रहता है । चक्कर लगाते लगाते उसके घुटने टिक जाते हैं, कभी-कभी वह मर भी जाता है पर उसे वह सुगन्ध का स्रोत उपलब्ध नहीं हो पाता। जो भीतर है, वह बाहर चक्कर लगाने से मिल भी कैसे सकता है?
नौका, नाविक और समुद्र
हमारी भी यह दशा हो रही है। हमारे शरीर के भीतर कितना सुख है, इसे हम नहीं जान पा रहे हैं। जब तक शरीर की नौका निश्छिद्र नहीं बनेगी, सुख का स्रोत फूटेगा नहीं। हम इस सचाई को जानें-छेद वाली नौका कभी पार नहीं पहुंचा पाएगी। हम इस शरीर रूपी नौका को छेद रहित बनाएं। केशी कुमारश्रमण ने यही प्रश्न गौतम से पूछा - ' गौतम! नौका किसे कहा गया है, उससे कैसे संसार समुद्र को तरा जा सकता है?' गौतम बोले- ' शरीर को नौका,
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