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शरीर एक नौका है
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इन्द्रिय चेतना के स्तर पर
शरीर के बारे में भी न जाने कितने दृष्टिकोण हैं। जो दृष्टिकोण बनता है, उसके पीछे कोई-न-कोई कारण होता है। अपने-अपने कोण से शरीर को देखा गया। हमारी चेतना का एक स्तर है-इन्द्रिय चेतना। इन्द्रियों के स्तर पर जब शरीर को देखा गया तब ऐसा लगा-शरीर बहुत काम का नहीं है। यह बहुत सताता है, कष्ट देता है। इसमें राग होता है और मनुष्य फंस जाता है। यह अध्यात्म की दृष्टि से उपजा चिन्तन है। लौकिक दृष्टि से देखने वाले लोगों ने सोचा- इन्द्रियों की पूर्ति का साधन है भोग और भोग का साधन है शरीर। इसलिए शरीर का खूब पालन-पोषण करना चाहिए, उसे आराम और विश्राम देना चाहिए। उनके लिए शरीर इच्छाओं/कामनाओं की पूर्ति का केन्द्र बन गया। जिसमें त्याग और वैराग्य का भाव जागा, उसने सोचा-शरीर और इन्द्रियां मनष्य को भटकाती हैं। इनके प्रति विरक्ति का भाव जगाना चाहिए। लौकिक व्यक्ति ने शरीर के प्रति रति पैदा करने का प्रयत्न किया और आध्यात्मिक व्यक्तियों ने उसके प्रति अरति पैदा करने का प्रयत्न किया।
बौद्ध धर्म में शरीर के संदर्भ में बड़े-बड़े प्रयोग किए गए। कहा गया-साधक को श्मशान में ले जाओ, मुर्दा दिखाओ और शरीर के प्रति घृणा पैदा करो। यह देखो-शरीर के भीतर क्या है? वह हाड़-मांस और रक्त का पुतला है, अशुचि का पुतला है। शरीर के प्रति अरुचि पैदा करने के लिए बहुत ग्रन्थ लिखे गए, मार्मिक पद्य और गीतिकाएं लिखी गई। शरीर को बहुत कोसा गया। उसके प्रति विरक्ति पैदा करने का यह दृष्टिकोण गलत नहीं है। उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण
जैन आगम उत्तराध्ययन में शरीर के प्रति एक दूसरा दृष्टिकोण मिलता है, वह बहुत महत्त्व का है। उपनिषद् में कहा गया-शरीर एक रथ है, आत्मा सारथी है। उत्तराध्ययन में कहा गया-शरीर एक नौका है और आत्मा नाविक है। केशी कुमारश्रमण ने गणधर गौतम से पूछा-'महाप्रवाह वाले समुद्र में नौका तीव्र गति से चली जा रही है। गौतम! तुम उसमें आरूढ़ हो। उस पार कैसे पहुंच पाओगे? समुद्र इतना विशाल है और नौका छोटी है। वह पार कैसे ले जाएगी?'
अण्णवंसि महोहसि, नावा विप्परिधावई।
जसि गोयममारूढो, कहं पारं गमिस्ससि? गौतम ने कहा-'जो छेद वाली नौका है, वह उस पार नहीं जा सकती। मेरी नौका छोटी है, पर उसमें छेद नहीं है। नौका में छेद होता है तो चिन्ता होती है और वह निश्छिद्र होती है तो चिन्ता की कोई बात नहीं होती। समुद्र विशाल है, यह मेरे लिए समस्या नहीं है। नौका छोटी है, यह चिन्ता का कारण नहीं है। निश्छिद्र नौका निश्चित ही उस पार पहुंचा देती है'
जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्सगामिणी। जा र निम्माविणी नावा साज पारस्सगामिणी।।
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