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________________ ३२० महावीर का पुनर्जन्म समन्वय का पथ जिन मार्ग है-ज्ञान और क्रिया का योग-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः। हमारा गंतव्य है मोक्ष। उसका साधन है-सम्यग ज्ञान और क्रिया का योग। मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान या केवल क्रिया से संभव नहीं है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते! क्या जीव कोरे ज्ञान से सिद्ध होते हैं? 'गौतम! नहीं' 'भंते! क्या केवल चारित्र से सिद्ध होते हैं।' 'गौतम! नहीं।' 'भंते! जीव ज्ञान से भी सिद्ध नहीं होता और चारित्र से भी सिद्ध नहीं होता तो फिर वह सिद्ध किससे होता है?' ‘गौतम! जीव केवल ज्ञान और केवल चारित्र से सिद्ध नहीं होता, किन्तु उन दोनों के योग से जीव सिद्ध होता है।' कोरे ज्ञानवाद का समर्थन और आचरण का खंडन, यह भी कुमार्ग है। कोरे आचरण का समर्थन और ज्ञानवाद का खंडन, यह भी कुमार्ग है। आचार्य ने ठीक लिखा-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः-मोक्ष का मार्ग एक है और वह त्रिपदी के योग से बना हुआ है-सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र। मार्ग तीन नहीं है, एक है, किन्तु उसमें तीनों का योग है। हम सड़क का उदाहरण लें। क्या वह केवल कंकरीट से बनी है? केवल तारकोल से बनी है? कंकरीट, तारकोल आदि के योग से बनती हैं सड़कें। सड़क बनती है और एक मार्ग बन जाता है। यह निष्कर्ष सही होगा ___ भगवान महावीर ने जो मार्ग बताया, वह अनेकान्त का मार्ग है। उसमें किसी तत्त्व का एकांत आग्रह नहीं है। उसमें ज्ञान और क्रिया का योग है, स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या का योग है। एक ऐसा मार्ग भी रहा, जिसमें तपस्या का खंडन किया गया। कहा गया-तपस्या व्यर्थ है, उससे कोई लाभ नहीं है। तुम्हें कुछ पाना है तो ध्यान करो। दूसरी ओर यह भी कहा गया-ध्यान निकम्मे व्यक्तियों का काम है। आंख मूंद कर बैठना पाखंड है। तप तपो तब कुछ उपलब्ध होगा। एक ऐसी मनोवृत्ति बन गई-जो अपने को रुचिकर नहीं लगा, उसका खण्डन कर दिया और जो रुचिकर लगा, उसका मंडन कर दिया। यह मनोवृत्ति एकांगी दृष्टिकोण को जन्म देती है। इसे मानवीय दुर्बलता ही कहा जाना चाहिए। समन्वय का मार्ग उसकी समझ में नहीं आता। वह यह नहीं सोच पाता-सहचिन्तन, सहविमर्श से जो निष्कर्ष निकलेगा. वह सही होगा। किसी एक बात को पकड़कर जो निष्कर्ष निकलेगा, वह सही नहीं होगा। अनेकान्त का हृदय समस्या यह है कि समन्वय की मनोवृत्ति कम मिलती है। प्राकृतिक चिकित्सक इस बिन्दु पर पहुंच गए-सार-प्रधान फल खाना ही स्वास्थ्य के लिए ठीक है, शेष सारा भोजन गलत है। इस बात पर इतना बल दे दिया, यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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