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महावीर का पुनर्जन्म
इस स्थिति में हम क्या करें। हम मन को पकड़ें या संचालक को पकड़ें? मन को संचालित कर रहा है भाव। पतंजलि ने इस बात को पकड़ा इसीलिए लिखा-चित्तवृत्तिनिरोधो योगः-चित्तवृत्ति का निरोध करना योग है, मन का निरोध करना नहीं। इसके लिए श्रुत का मार्ग बतलाया गया है। आचार्यश्री तुलसी की एक कृति है मनोनुशासनम्। मन की अवस्थाओं को जानने-समझने का दह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं-अशुभ योग और शुभ योग, शुभ भाव और अशुभ भाव, शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम, प्रशस्त लेश्या और अप्रशस्त लेश्या। हमें ध्यान देना चाहिए लेश्या पर, आभामण्डलीय भावों पर। हमारा जैसा आभामण्डल होगा, जिस प्रकार की भावधारा होगी, मन उसी प्रकार से चलेगा। यदि हमारा ध्यान किसी ओर दिशा में है तो हम भटक जाएंगे।
हम उलझन में न जाएं, भटकाव को मिटाएं। वह तब मिट सकता है जब हम मन के साथ-साथ भावधारा को भी समझें। मानसिक अवस्था और भावात्मक अवस्था-दोनों को एक साथ समझना है, यदि हम केवल मन पर अटक गए तो कहीं नहीं पहुंच पाएंगे। भाव कहां पैदा होता है? इस शरीर को कैसे प्रभावित करता है? इस तथ्य को समझे बिना मन की समस्या सुलझेगी नहीं। मन की स्थिति क्या है? वह तो चंचल ही है। कवि ने कितना अच्छा चित्रण किया है-हम मन को एक बंदर मान लें। बंदर स्थिर होगा या चंचल? उसने शराब की प्याली पी ली। फिर बिच्छू काट गया और भूत का प्रवेश भी हो गया। इस स्थिति में क्या होगा। यह भगवान ही जान सकते हैं।
मर्कटस्य सुरापानं, तत्र वृश्चिकदंशनम्।
तत्रापि भूतसंचारो, यद्वा तद्वा भविष्यति।। मन एक बंदर है। उसे कभी शराब की प्याली मिल जाती है। कभी उसे अहंकार का बिच्छु काट लेता है, कभी मूर्छा का भूत प्रभावित कर देता है। मन का बंदर अपने आप में बुरा नहीं है। उसे शराब न मिल जाए, अहं का बिच्छू न काट जाए, मूर्छा का भूत न लग जाए। यह ध्यान रखा जाए तो मन समस्या नहीं बनेगा। बंदर बंदर है। वह मनोरंजन भी करता है किन्तु वह उत्पथ पर न जाए, यह जरूरी है। इसका सबसे बड़ा उपाय है स्वाध्याय और ध्यान। हम स्वाध्याय और ध्यान की साधना करें, मन कभी समस्या नहीं बन पाएगा।
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