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________________ दुष्ट घोड़े पर नियंत्रण कैसे? ३१५ सब मित्र स्तब्ध रह गए। अब उनकी समझ में आया 'चरणों के प्रसाद का रहस्य ' मन चंचल क्यों है? हम यह सोचें – मन चंचल क्यों बन रहा है? किसका प्रसाद उसे चंचल बना रहा है । यह प्रसाद है भाव का। जितने निषेधात्मक भाव हैं, मन को चंचल बनाने वाले हैं। हिंसा का भाव आए और मन चंचल न बने, यह कभी संभव नहीं है। परिग्रह एवं कामवासना का भाव हो और मन चंचल न बने, यह कैसे संभव है? क्रोध, निन्दा, ईर्ष्या, घृणा, चुगली, अहं – ये सब चेतना में हैं फिर मन चंचल क्यों नहीं होगा? चंचल बनाने वाले परदे के पीछे बैठे हैं, बेचारा मन सामने आ जाता है। एक राजस्थानी कहावत है- धणी बिगाड़े, ढांढा पीटै। पशुओं के मालिक ने कहीं बिगाड़ किया। उसका अहित करने की शक्ति नहीं होती है तब व्यक्ति उसके पशुओं को पीटकर बदला लेने की सोचता है। हम भी ऐसा ही कर रहे हैं। मन को जो चंचल बनाते हैं, वे भाव भीतर बैठे हैं। हम उन तक पहुंचते ही नहीं हैं। मन सामने आता है, उसे ही कोसने लग जाते हैं । संतों ने मन को कितनी गालियां दी हैं मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर । मन के मतै न चालिए, पलक पलक मन ओर ।। मन ने आखिर क्या बिगाड़ा? उसका दोष क्या है? बिगाड़ने वाला तो भीतर बैठा है । कभी-कभी ऐसा होता है- दो-चार होशियार आदमी और एक भोला आदमी मिलकर काम करते हैं। जब मारपीट का प्रसंग आता है, होशियार आदमी खिसक जाते हैं और भोला आदमी पिट जाता है। ठीक वही दशा हो रही है मन की। वह तो अपना काम करता है। दोष करने वाले भीतर बैठे हैं। भाव और इन्द्रियों के विषय हमारे भाव मन को पैदा करते हैं। हमने भावों की उपेक्षा कर दी और मन की चंचलता को मिटाने में सारी शक्ति लगा दी । वास्तव में हमें शोधन करना चाहिए वृत्तियों का, भावों का । गौतम का यह कथन महत्त्वपूर्ण है— मेरा अश्व जब-जब उन्मार्ग पर जाता है, मैं श्रुत की वल्गा के द्वारा उसे खींच लेता हूं। जब-जब मन उन्मार्ग पर जाने लगे, हम भावों को बदल दें। इस बात पर ध्यान केन्द्रित करें - भाव शुद्धि कैसे बनी रहे? जितनी भाव शुद्धि बढ़ेगी, मन अपने आप नहीं भटकेगा, उन्मार्ग पर नहीं जाएगा । चरक आयुर्वेद का मुख्य ग्रंथ है। उसमें मन के विषय और कर्म की बहुत सुन्दर मीमांसा की गई है। चिन्तन करना, विचार और तर्क करना, ध्यान और संकल्प करना, मन का विषय है । मन का काम है इन्द्रियों का अभिग्रह या निग्रह करना। उसका काम उन्मार्ग में जाना नहीं है। इन्द्रियों के विषय और भाव - दो ऐसे तत्त्व हैं, जो उन्मार्ग की ओर ले जाते हैं । भाव हमारे खजाने में जमा है और इन्द्रियों के विषय बाहर से आ रहे हैं। एक ओर उसे भाव चंचल बना रहे हैं दूसरी ओर इन्द्रियों के विषय । इन दोनों से बंधा मन चंचल क्यों नहीं होगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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