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________________ महावीर का पुनर्जन्म गौतम ने कहा – कुमारश्रमण ! मैंने उसे श्रुत की लगाम से थाम रखा है। जब वह उन्मार्ग की ओर जाने लगता है तब मैं वल्गा खींच लेता हूं। वह फिर रास्ते पर आ जाता है । 'गौतम! अश्व किसे कहा गया है?" 'कुमार श्रमण ! वह अश्व मन है । उसे मैं भलीभांति अपने अधीन रखता हूं । धर्मशिक्षा के द्वारा यह उत्तम जाति का अश्व हो गया है ।' मन को चलने दें, रोकें नहीं ३१४ यह एक बहुत बड़े सत्य का निदर्शन है। हम इस तथ्य को हृदयंगम करें - जब-जब घोड़ा उन्मार्ग पर जाने लगे, वल्गा को खींच लें। उसे मार्ग पर ले आएं। उसे चलने दें, रोकें नहीं, पर उन्मार्ग पर न जाने दें। हम उसे रोक भी कैसे पाएंगे? वह रुकने वाला तत्त्व नहीं है। समस्या यह है - जिसको रोकना चाहिए, उस पर ध्यान नहीं देते और जिसे नहीं रोकना है, उस पर सारी शक्ति लगा देते हैं। जब वह रुकता नहीं है तब हमें निराशा ही हाथ लगती है। अनेक लोग कहते हैं - बहुत अभ्यास किया, मन को रोकने का बहुत प्रयत्न किया पर मन वैसा का वैसा चंचल बना हुआ है। ऐसा प्रयत्न हजार वर्ष तक करते चले जाएं तब भी सफल नहीं होंगे। मन को पकड़ने का प्रयत्न, वायु को पकड़ने का प्रयत्न कैसे सफल होगा? हमें दिशा बदलनी होगी, सचाई को समझना होगा । एक बहुत कंजूस आदमी था। एक बार कुछ मित्रों ने कहा - " मित्र ! तुम भी कभी भोजन कराओ। मित्रता का लक्षण है खाना और खिलाना । तुम केवल खाते ही खाते हो, दूसरों को भी खिलाओ।' कंजूस मुसीबत में फंस गया। रविवार को कुछ मित्रों को भोजन पर आमंत्रित करना पड़ा। रविवार का दिन । मित्र यथासमय उपस्थित हो गए। भोजन का समय । उसने मित्रों को श्रेष्ठ भोजन और पक्वान्न परोसे। मित्र उसका आतिथ्य देख भावविभोर हो उठे। एक मित्र ने कहा - ' अरे भाई ! आज तुमने गजब कर दिया, सारी कंजूसी समाप्त कर दी । कितना सुन्दर खाना खिलाया है ।' उसने कहा - ' इसमें मेरा कुछ नहीं, आपके ही चरणों का प्रसाद है ।' भोजन समाप्त हो गया। सब खाना खाकर जाने लगे। मित्र को साधुवाद दिया- 'आज तुमने दिल खोलकर आतिथ्य किया है। ऐसा सुन्दर भोजन कराया है कि बहुत दिनों तक याद रहेगा ।' 'यह सब आपके चरणों का ही प्रसाद है ।' उसने फिर वही बात दुहरा दी । सब मित्र दरवाजे से बाहर आए। यह देख अवाक रह गए - सबकी चप्पलें गायब हैं। उन्होंने इधर-उधर देखा, जूते दिखाई नहीं दिए। वे बोले – 'अरे! जूते कहां गए? कौन ले गया इतने सारे जूते ? एक व्यक्ति ने कहा- 'आपके जूते सामने वाली हलवाई की दुकान में हैं ।' सब हलवाई की दुकान पर पहुंचे, बोले- 'हमारे जूते कहां हैं?" जूतों की ओर इशारा करते हुए हलवाई ने कहा – 'ये रहे आपके जूते । ये सब गिरवी रखे हुए हैं। पैसा लाइए और जूते ले जाइए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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