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________________ दुष्ट घोड़े पर नियंत्रण कैसे? हवा चले और पेड़ का पत्ता न हिले, क्या संभव है? हवा बंद होती है तो पेड़ का पत्ता भी स्थिर हो जाता है। लेकिन यह संभव नहीं है कि हवा चले और पत्ता स्थिर हो जाए। हम उपाय यह करते हैं- हवा भी चले और पत्ता भी न हिले, पर यह संभव नहीं होता । श्रीकृष्ण ने अर्जुन को साम्ययोग का उपदेश दिया। अर्जुन ने कहा - 'आपने साम्ययोग की बात बताई है, पर मैं चंचलता के कारण मन की स्थिर स्थिति नहीं देख रहा हूं। मन पवन की भांति चंचल है। मन की चंचलता को पकड़ना हवा को पकड़ने जैसा है। इसकी चंचलता को कैसे रोका जा सकता है? ४६ योयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ! एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात् स्थितिं स्थिराम् ।। चंचलं हि मनः कृष्ण ! प्रमाथि बलवद् दृढम् । तस्याहं निग्रहं मन्ये, वायोरिव सुदुष्करम् ।। हम जैन दर्शन की भाषा को पढ़ें। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति होती रहती है। इसकी चंचलता का निरोध कैसे किया जा सकता है? मन की चंचलता को रोका नहीं जा सकता । मन होगा तो चंचल होगा, अन्यथा मन ही नहीं होगा । या तो मन होगा या वह अमन हो जाएगा। मन होगा तो चंचल ही होगा । यही स्थिति वाणी की है। वाणी होगी तो चंचलता होगी, अन्यथा व्यक्ति अवाक हो जाएगा। जहां मन और वाणी है वहां चंचलता निश्चित है। शरीर की स्थिति कुछ भिन्न प्रकार की है । शरीर को रोका भी जा सकता है पर वाणी और मन- ये दोनों चंचलता के झूले में झूलने वाले हैं। इनका अस्तित्व रहेगा तो चंचलता रहेगी। जब इनका अस्तित्व नहीं होगा, चंचलता भी नहीं होगी । श्रीकृष्ण ने कहा- ' - 'अर्जुन ! तुम ठीक कहते हो। यह मन ऐसा ही है पर इसका निरोध नहीं, स्थिरीकरण नहीं, किन्तु निग्रह संभव है । उसके दो साधन हैं - अभ्यास और वैराग्य- 'अभ्यासेन च कौन्तेय वैराग्येण व गृह्यते ।' यह प्रश्न अनेक बार चर्चित हुआ है । केशी कुमारश्रमण ने भी यही प्रश्न गौतम से पूछा - ' गौतम ! यह साहसिक भयंकर और दुष्ट अश्व दौड़ रहा है । तुम उस पर चढ़े हुए हो। वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाता ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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