SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ महावीर का पुनर्जन्म प्रकार की मनोदशा होती है, व्यक्ति सहन कर लेगा। मनोदशा बदल गई, व्यक्ति सहन नहीं कर पाएगा। जहां तितिक्षा की कमी होती है वहां नया मार्ग और नया विकल्प खोजा जाता है। इस स्थिति में नियम प्रभावित होते हैं। सबकी तितिक्षा समान नहीं होती। द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता है तितिक्षा। इसमें अन्तर आता रहता है। व्यक्ति की तितिक्षा में बहुत तारतम्य होता है। हम हजार वर्ष पूर्व की बात छोड़ दें। आचार्य भिक्षु दो सौ वर्ष पूर्व हुए। उनका अन्तिम चातुर्मास सिरियारी में था। जिस स्थान पर उन्होंने चातुर्मास किया, वह आज भी विद्यमान है। एक पक्की हाट (दुकान) थी। शायद आठ-दस फुट का कक्ष है। उसमें न जाली है, न खिड़की है और न झरोखा। हवा और प्रकाश के लिए कोई अवकाश नहीं। दरवाजा इतना छोटा कि झुके बिना अन्दर प्रवेश ही नहीं किया जा सकता। आचार्य भिक्षु ने ऐसे स्थान में चातुर्मास किया। यदि आज उस स्थान में चार महीने रहना पड़े तो शायद बहुत सोचना पड़े। वह कोई युग था, जिसमें तितिक्षा अधिक थी। उस समय के लोग भी सहिष्णु थे। आज तितिक्षा की वह स्थिति नहीं है। आज कोई आदमी कष्ट सहन करना नहीं चाहता। ___ क्षमता के भेद से भी आचार में अन्तर आता है। समय समय पर नानारूपता घटित होती रहती है किन्तु आचार का मूल एक रहता है। वह मूल बिन्दु है वीतरागता। रागद्वेष को स्थान न मिले, अहिंसा और अपरिग्रह केन्द्र में रहे। यह मूल तत्त्व नहीं बदलता, अन्य बातें बदलती रहती हैं। गणधर गौतम ने भूमिका भेद के आधार पर शासन भेद की समस्या को अभिव्यक्त किया। पार्श्व के शिष्यों का समाधान हो गया और महावीर के शिष्यों का भी समाधान हो गया। उनके मन में जो शंका पैदा हुई थी ये कैसे साधु हैं? वह विलीन हो गई। यही प्रश्न गोशालक के मन में उठा था। उसने पार्श्व के शिष्यों को देखकर महावीर से कहा था-'भंते ! आज मैंने सारम्भी, सपरिग्रही साधुओं को देखा है। ये कैसे साधु हैं?' वस्तुतः यह सारा प्रज्ञा भेद और तितिक्षा भेद का निदर्शन है। इस भेद के आधार पर धर्म के दो रूप बन गए-चातर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म । वास्तव में धर्म एक ही होता है। उसमें कोई द्विरूपता नहीं होती। हम अपनी मति को सरल और सापेक्ष बनाएं। हर बात को समझने का प्रयत्न करें। कौन बदलता है, क्या बदलता है? कब और कैसे बदलता है? किस आधार पर बदलता है? किस भूमिका भेद के कारण बदलता है? इस बात को ठीक समझते चले जाएं तो कोई उलझन नहीं होगी। यह सचाई सामने बनी रहे-केन्द्र एक है, वह कभी नहीं बदलता। परिधि में बहुत-सी बातें बदलती रहती हैं-इस संदर्भ में गौतम और केशी का संवाद मार्गदर्शक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy