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महावीर का पुनर्जन्म
"फिर आज विलम्ब क्यों हुआ?"
'भन्ते ! बाजार में नाटक हो रहा था । मेरा मन उस ओर खिंच गया । मैं नाटक देखने में लीन हो गया, इसलिए देरी हो गई ।'
'वत्स! कल तुम्हें नाटक देखने के लिए मना किया था।'
'भन्ते! आपने नटनियों का नाच देखने की मनाही की थी। आज तो नट नाच रहे थे । नटों का नृत्य देखने का निषेध कहां किया था आपने?'
यह ऋजुजड़ की बात है। सरलता है पर प्रज्ञा नहीं है । यदि प्रज्ञा जागृत होती तो एक इशारे में सारी बात समझ में आ जाती। यह एक प्रकार का मानस स्तर है, जिसमें सरलता तो है पर चिन्तन का जितना विकास होना चाहिए, उतना नहीं है ।
दूसरी भूमिका है ऋजु प्राज्ञ की । प्रज्ञा भी जागृत है और सरलता भी है । ऐसे व्यक्ति को एक बात कही जाए, थोड़ा-सा संकेत दिया जाए तो भी वह पूरी बात को ग्रहण कर लेगा। यह अतीन्द्रिय चेतना की भूमिका है।
तीसरी भूमिका है वक्रजड़ की। सरलता समाप्त हो गई और वक्रता अधिक विकसित हो गई। ऐसी मनोवृत्ति का व्यक्ति छिपाव बहुत करता है, प्रत्येक बात को टेड़ा-मेढ़ा करके कहता है, सीधी बात नहीं कहता। जहां वक्रता है, वहां जड़ता का होना जरूरी है । वक्रता के बिना जड़ता का काम चलता नहीं है। टेढ़ापन तब चलेगा जब साथ में तर्क हो । तर्क भी है, जड़ता भी है, तब छिपाव की मनोवृत्ति प्रबल बनती है ।
विधान का हेतु
हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। क्या सबके लिए नियम समान होंगे? यह कभी संभव नहीं है । ऋजुप्राज्ञ के लिए एक प्रकार के नियम होंगे ऋजुजड़ के लिए दूसरे प्रकार के नियम होंगे। वक्रजड़ के लिए अलग प्रकार के नियम होंगे। यह संभव है कि इनमें कुछ नियम मिल जाएं पर सब नियम समान नहीं हो सकते। तीनों की आचार संहिता एक समान नहीं हो सकती। यह भ्रांति नहीं होनी चाहिए कि सब साधुओं के नियम समान होते हैं। हम कालक्रम की दृष्टि को नहीं जानते, विकास के क्रम को नहीं जानते इसलिए उलझ जाते हैं । कालभेद और अवस्थाभेद के आधार पर नियमों में अन्तर होता रहा है ।
आचार्य श्री दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। वहां की परम्परा है- जो लोग मंदिर में जाते हैं, वे खुले बदन जाते हैं । नीचे धोती रहती है और शेष शरीर खुला रहता है । एक व्यक्ति ने महन्त से पूछा - 'यह क्या परम्परा है?' महन्त ने जबाब दिया- 'भाई! हमारे यहां गर्मी बहुत पड़ती है इसलिए लोग खुले बदन रहते हैं ।' एक देश विशेष के कारण यह नियम बन गया- मंदिरों में खुले बदन जाना चाहिए । यही कारण है- यह क्षेत्र दिगम्बर मुनियों के लिए अनुकूल रहा है । वहां पर रहने वाले लोगों का आधा शरीर तो नंगा ही रहता है । दक्षिण का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह वकील है, न्यायाधीश या मंत्री है, बाहर घूमने जाएगा तो धोती पहनकर ही जाएगा। यदि हम लोग कश्मीर में जन्मे होते तो शायद यह विधान किया जाता - मन्दिर में जाएं तो खुले बदन न जाएं, जूते पहनकर जाएं।
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