SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शासन-भेद की समस्या ३०६ नियमों की अपेक्षा नहीं होती है तो उनका विलयन हो जाता है। नए नियमों की अपेक्षा होती है तो उनका सृजन हो जाता है। मानस : तीन स्तर गौतम और केशी का मिलन इस सचाई को समझने की दृष्टि देता है। उन्होंने सारा चिन्तन विचार-विकास के आधार पर किया। केशी कुमारश्रमण ने पूछा-'भगवान पार्श्व ने चार महाव्रत बताए और भगवान महावीर ने पांच। इसका कारण क्या है? रहस्य क्या है?' गौतम ने कहा-'इसका कारण यह है कि पहले तीर्थंकर के समय के साधु ऋजुजड़ होते हैं, अन्तिम तीर्थकर के समय के साधु वक्रजड़ होते हैं। मध्यवर्ती तीर्थकरों के समय के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं इसलिए धर्म के ये दो प्रकार किए गए हैं पुरिमा उज्जुजड़ा य, वंकजड़ा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपण्णा य, तेण धम्मे दुहा कए।। __ धर्म को दो भागों में बांटने का कारण है बुद्धि और प्रज्ञा। धर्म को पालने वाले जो मुनि हैं, उनका मानस कैसा है? मति कैसी है? इस आधार पर धर्म को विभाजित किया गया। धर्म में कोई फर्क नहीं है। उसकी व्याख्या में अन्तर है। उस अन्तर का कारण है प्रज्ञा का तारतम्य।। कहा गया-ऋषभ के शिष्य ऋजुजड़ थे, महावीर के शिष्य वक्रजड़ हैं और पार्श्व के शिष्य ऋजुप्राज्ञ हैं। वक्रजड़ शब्द अप्रिय-सा है। प्राज्ञ यह प्रिय शब्द है। महावीर के शिष्यों में ऋजता भी नहीं है.प्रज्ञा भी नहीं है। मानस के तीन स्तर हो गए-ऋजुजड़, वक्रजड़, ऋजुप्राज्ञ। ऋजुजड़ वह है, जो प्रज्ञावान नहीं है, किन्तु सरल है। ऋजुप्राज्ञ वह है, जो ऋजु भी है और प्रज्ञावान भी है। वक्रजड़ वह है, जो न ऋजु है न प्रज्ञावान है। प्रज्ञा का अर्थ है अन्तर्दृष्टि या अतीन्द्रिय चेतना। बुद्धिमान व्यक्तियों की आज़ भी कमी नहीं है पर प्रज्ञावान बहुत विरल हैं। ऋजुजड़ का चित्र भगवान ऋषभ के साधुओं का एक चित्र प्रस्तुत किया गया, वह ऋजुजड़ का निदर्शन है। कहा जाता है-मुनि भिक्षा के लिए गए। वापस देरी से आए। ऋषभ ने पूछा-'वत्स! इतनी देरी क्यों की? क्या भिक्षा देरी से मिली थी?' 'भंते ! भिक्षा तो समय पर मिल गई थी।' 'फिर देरी से क्यों आए?' 'भंते ! मार्ग में नटनियां नाच रही थीं। मैं उन्हें देखने लग गया इसलिए देरी हो गई।' 'वत्स! साधु को नटनियों का नाच देखना नहीं है।' 'भंते ! आज से मैं ऐसा नहीं करूंगा।' दूसरा दिन। शिष्य फिर विलम्ब से आया। ऋषभ ने पूछा-'वत्स! आज क्यों विलम्ब से आए? क्या समय पर भिक्षा नहीं मिली?' "भन्ते! भिक्षा तो समय पर ही मिती।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy