SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०७ मिलन चांद और सूरज का अधिकृत व्यक्ति ही सामयिक सत्य में परिवर्तन कर सकता है, किन्तु शाश्वत सत्य में परिवर्तन का अधिकार उसे भी नहीं है। अणुव्रत पांच भी किए जा सकते हैं, आठ और बारह भी किए जा सकते हैं। चौरासी भी किए जा सकते हैं। जब अणुव्रत आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब चौरासी व्रतों की सूची बनी। पांच के स्थान पर चौरासी व्रत बन गए। उन्हें कम किया गया तो चालीस शेष रहे। संकोच होता चला गया, ग्यारह व्रत बन गए। पांच से चौरसी और चौरासी से ग्यारह । एक आचार्य के जीवनकाल में इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है, तो हजारों वर्षों के अतंराल में कितना परिवर्तन हो सकता है? सूचियां कभी लंबी हो सकती हैं, आकाश को छू सकती हैं. और कभी एक पन्ने में सिकुड़ जाती हैं। सूची का छोटा या लंबा होना, वर्गीकरण का होना-ये सारी सामयिक बातें हैं। मूल बात कभी नहीं बदलती। शाश्वत और केन्द्रीय तत्त्व कभी नहीं बदलता। यह दृष्टिकोण स्पष्ट रहता है तो उलझन जैसी बात नहीं लगती। सामयिक सत्य परिवर्तन सापेक्ष होता है। जब-जब जिस प्रकार की आवश्यकता होती है, परिवर्तन होते चले जाते हैं। वह परिवर्तन सुविधा या सार्थकता के आधार पर होता है। शाश्वत और सामयिक-दोनों सत्यों को समझने के लिए हम अनेकान्त का प्रयोग करें। मेरा यह निश्चित विश्वास है-जो सिद्धांत और जीवन-व्यवहार में अनेकांत का प्रयोग नहीं करता, उसे परमात्मा भी दुःखों से उबार नहीं सकता। अनेकांत का दृष्टिकोण केवल सिद्धांत नहीं जीवन जीने की कला है, सब झंझटों से मुक्त होने की कला है। यदि कोई प्रज्ञा को जगाना चाहता है, उसके लिए सबसे ज्यादा सरल और सहज उपाय है अनेकांत। मिलन दो परम्पराओं का केशीकुमार श्रमण और गणधर गौतम दोनों अनेकांत की छाया में पले थे। यह माना जाता है-एक मुख्य सूत्र का प्रवर्तन किया भगवान पार्श्व ने, उसे विस्तार दिया भगवान महावीर ने। अनेकांत की छाया उन्हें प्राप्त थी इसलिए कोई समस्या नहीं रही। शिष्यों के सारे तर्क समाहित हो गए। चांद और सूरज-दोनों एक हो गए। अलगाव रहा ही नहीं। शरीर-शास्त्र की भाषा में कहा जाता है-अनुकंपी और परानुकंपी-दोनों नाड़ी-संस्थान मिलकर शरीर का संचालन करते हैं। इन दोनों के योग का अर्थ है-चांद और सूरज का मिलन। इस योग का अर्थ है-जीवन, हमारी सारी प्रवृत्तियों का संचालन। गौतम और केशी के मिलन से एक ऐसा वातावरण बना, जिसे देख सब विमुग्ध हो गए। कहा जाता है कि उस मिलन को देखने के लिए मनुष्य ही नहीं, भूत, यक्ष और राक्षस भी आए थे। उन सबकी उपस्थिति में जो वातावरण बना, वह अनेकांत की विजय का प्रतीक है। वह गौतम और केशी का नहीं, भगवान महावीर और पार्श्व की परम्पराओं का मिलन था। उस मिलन की जो निष्पत्ति रही, वह जैन शासन के लिए अविस्मरणीय बन गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy