________________
३०६
महावीर का पुनर्जन्म
यह पता चलता है प्रज्ञा से। जिसकी प्रज्ञा जाग जाती है, वह विशिष्ट बन जाता है। दिगम्बर साहित्य का एक शब्द है-प्रज्ञाश्रमण। जिसे प्रज्ञाश्रमण की लब्धि प्राप्त होती है, उसका महत्त्व है। कहा गया-चतुदर्शपूर्वी जिस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता, उस प्रश्न का उत्तर प्रज्ञाश्रमण दे देता है। प्रश्न पूछने वाला है चतुदर्शपूर्वी और उत्तर देने वाला है प्रज्ञाश्रमण। वह पढ़ा-लिखा नहीं है पर जब प्रज्ञा जाग जाती है तब वह उत्तर देने की अर्हता उपलब्ध कर लेता है। उसका ज्ञान बहुत विशिष्ट बन जाता है। वैज्ञानिक सत्य
बहुत विचित्र है प्रज्ञा का कार्य। जैन आचार्यों ने ज्ञान मीमांसा में जिस सूक्ष्मता का परिचय दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। कहा गया-मनःपर्यव ज्ञानी अचिंतित, चिन्त्यमान और चिन्तित-तीनों को जान लेता है। प्रश्न आया-वह अचिन्तित को कैसे जानेगा? चिन्तित और चिन्त्यमान को जाना जा सकता है, पर जो सोचा ही नहीं गया है, उसे कैसे जाना जा सकता है? इस संदर्भ में नंदीसूत्र का प्रकरण देखें तो एक समाधान मिल जाता है। यह महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सत्य है-काल की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञानी अतीत को भी जान लेता है, वर्तमान को भी जान लेता है और अनागत को भी जान लेता है। आज से लाख वर्ष बाद कोई व्यक्ति क्या चिन्तन करेगा, इसे भी वह जान सकता है। इतनी क्षमता मनःपर्यवज्ञानी में जाग जाती है। चिन्तनवर्गणा के पुद्गल किस रूप में बदलेंगे, इस तथ्य के आधार पर वह लाखों-करोडों वर्ष बाद होने वाली बात को जान लेता है। आज वैज्ञानिक इस खोज में लगे हैं, पर वे अभी वहां तक नहीं पहुंच पाए हैं। जैन ज्ञान-मीमांसा में जिस सूक्ष्मता से विचार हुआ है, वे उससे अभी बहुत दूर हैं। प्रज्ञा की भूमिका पर
प्रज्ञा के संदर्भ में जैन ज्ञान-मीमांसा में अत्यंत सूक्ष्मता से चिन्तन हुआ है। मनस्विता, बौद्धिकता और प्रज्ञा-ये तीन भूमिकाएं हैं। गौतम ने केशी कमारश्रमण से जो कहा. वह प्रज्ञा की भमिका पर कहा। गौतम का यह कथन कितना मार्मिक है-पंच महाव्रत या चार महाव्रत, सचेलक या अचेलक, श्वेताम्बार या विविध रंगी वस्त्र-ये सारे देश काल की उपयुक्तता से जुड़े हुए हैं। जैसा आचार्य उचित समझते हैं वैसा ही विधान कर देते हैं किन्तु मूल तत्त्व का निर्णय, वीतरागता और धर्म का निर्णय-यह सारा प्रज्ञा के द्वारा होता है। यह प्रज्ञा एक ऐसा बिन्दु है, जो कुछ सोचने के लिए अवकाश देता है। बहुत सारे लोग छोटी-छोटी बातों में उलझ जाते हैं। जहां प्रज्ञा का काम है, वहां बुद्धि और तर्क का बहुत उपयोग नहीं है।
हम इस प्रज्ञा को जगाने का प्रयत्न करें, गहराई में जाएं। इन दो सचाइयों को मानकर चलें-शाश्वत सत्य और सामयिक सत्य। शाश्वत सत्य कभी
बदलता, उसे कोई नहीं बदल सकता। न उसे ऋषभ बदल सकते हैं, न पार्श्व और महावीर बदल सकते हैं। जो सामयिक सत्य है, उसे भी हर कोई नहीं
बदल सकता। जिसके मन में जो आया, बदल दिया, ऐसा नहीं हो सकता। कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org