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________________ मिलन चांद और सूरज का ३०५ 'फिर क्या हुआ?' 'मां काली की कृपा हो गई। 'ऐसा लगता है-आपकी वाणी जाग गई है।' कालिदास ने कहा-'हां, यह मां की कृपा का प्रसाद है। राजकन्या का मन पश्चात्ताप से भर उठा तो साथ-साथ उल्लास से भी। गिरने का पश्चात्ताप था तो पति को इस रूप में पाने का उल्लास भी था। निरक्षर कालिदास में बुद्धि जाग गई, यह एक विरल घटना है। उसी कालिदास ने इन तीन पदों-अस्ति' कश्चित् वाग्विशेषः३–पर दो महाकाव्य बनाए और एक महाकाव्य जैसा उत्कृष्ट खण्ड काव्य बनाया। उनके द्वारा रचित 'कुमारसंभव' और 'मेघदूत' आज भी संस्कृत साहित्य के गौरव ग्रन्थ बने हुए हैं। व्यक्ति में मनस्विता जागती है। मन और बुद्धि का विकास किया जा सकता है, प्रज्ञा को जगाया जा सकता है। जहां प्रज्ञा का विकास है, वहां पढ़ने की जरूरत नहीं है। भगवान् महावीर कब पढ़े? कबीर और आचार्य भिक्षु कब पढे? समाचार पत्र में पढ़ा-बच्चों के लालन-पालन की अपेक्षा पढाना बहत भारी है। बच्चों के भरण-पोषण पर जितना खर्च नहीं होता, उससे अधिक पढाने में खर्च होता है। एक गरीब आदमी के लिए अपने लड़कों को पढ़ाना भी एक । आचार्य भिक्षु की पढ़ाई में एक रुपया भी नहीं लगा होगा। मुनिश्री मगनलालजी तेरापंथ धर्मसंघ के मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित थे। उनकी प्रतिभा का प्रत्येक व्यक्ति लोहा मानता था। उनका विवेक जागृत था। मंत्री मुनि की पढ़ाई में केवल बारह आना खर्च हुआ। वे मनस्वी बन गए। इसी प्रकार आचार्य भिक्षु की प्रज्ञा जाग गई। उनके जीवन की घटनाएं इसका निदर्शन हैं। प्रज्ञा भिक्षु की एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से पूछा-'महाराज! घोड़े के कितने पैर होते हैं?' आचार्य भिक्षु कुछ क्षण तक मौन रहे। चिन्तन की मुद्रा में गिनती करते हुए कहा-'एक......दो......तीन.....चार। घोड़े के चार पैर होते हैं।' __व्यक्ति बोला-'भीखणजी! मैंने सुना था-आप बहुत बुद्धिमान हैं। इस प्रश्न का उत्तर तो एक छोटा बच्चा भी आपसे जल्दी दे देता है।' आचार्य भिक्षु ने कहा-'तुम्हारी बात ठीक है। यदि मैं यह सीधा कह देता–घोड़े के चार पैर होते हैं, तो तुम्हारा अगला प्रश्न होता-कनखजूरे के कितने पैर होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए मुझे सोचना पड़ता। जब मैं सोचता तब तुम्हें यह कहने का अवसर मिल जाता-पहले तो तत्काल बता दिया, अब बताओ तो पता चले।' 'महाराज! मैं सोचकर तो यही आया था। आपको कैसे पता चला?' मा १. अस्ति-कुमारसंभव महाकाव्य। २. कश्चिद्-मेघदूत। ३. वाग्विशेषः-रघुवंश। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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