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महावीर का पुनर्जन्म
लक्ष्य एक है, पर न वेश एक है और न महाव्रत समान हैं। प्रश्न खड़ा हो गया-एक लक्ष्य के लिए चलने वालों में यह भिन्नता क्यों?
पार्श्व के शिष्य आपस में मिले। एक शिष्य ने कहा-मैंने आज एक ऐसा मुनि देखा है, जो श्वेत वस्त्र पहनता है, पांच महाव्रतों का पालन करता है।
भगवान् महावीर के शिष्यों में यह चर्चा होने लगी-आज नगर में ऐसे साधु आए हैं, जो रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं, चातुर्याम धर्म का पालन करते हैं। मिलन गौतम और केशी का
शिष्यों के मन में एक हलचल पैदा हो गई। यह प्रश्न उन्हें आन्दोलित करने लगा-हमारा प्रयोजन एक है, फिर साधना की पद्धति और वेश अलग अलग क्यों है? कौन-सा मार्ग सही है? यह वात गणधर गौतम और केशी कुमारश्रमण तक पहुंची। शिष्यों में तर्क वितर्क हुआ, ऊहापोह हुआ, फिर बात आगे पहुंची। यह सच है--शिखर तक पहुंचने में समय लगता है। तलहटी तक व्यक्ति पहले ही पहुंच जाता है, चोटी तक पहुंचना समय-साध्य होता है। शिष्यों में बढ़ता ऊहापोह केशी कुमारश्रमण और गणधर गौतम को ज्ञात हुआ। दोनों ने शिष्यों की जिज्ञासा को समाहित करने का निश्चय किया। केशी के मन में गौतम से मिलने की भावना पैदा हो गई और गौतम के मन में केशी से मिलने की। मिलन स्थान और दिन निश्चित हो गया। केशी कुमारश्रमण पार्श्व की परम्परा के थे इसलिए वे गौतम से ज्येष्ठ थे। गौतम ने केशी कुमार श्रमण के स्थान पर जाने का निर्णय किया। अपने शिष्यों से परिवत गौतम कोष्टक उद्यान पहंचे। आचार्य केशी ने आसन देकर गौतम का सत्कार किया। आचार्य केशी और गणधर गौतम दोनों पट्ट पर आसीन थे। उनके दोनों ओर शिष्य समुदाय उपस्थित था। अनेक मतावलम्बी भी इस दृश्य को देखने के लिए आए थे। सूत्रकार ने केशी और गौतम की स्थिति का सुन्दर चित्रण किया है-केशी कुमारश्रमण और गौतम सूर्य और चन्द्रमा की शोभा के समान शोभित हो रहे थे।
केसीकुमारसमणे, गोयमे य महायसे।
उभओ निसण्णा सोहंति, चंदसूरसमप्पभा ।। बातचीत शुरू हुई। प्रश्न करने वाले थे केशी कुमार श्रमण और उत्तर देने वाले थे गणधर गौतम। आचार्य केशी ने पूछा-'गौतम! जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है। जो पंच शिक्षात्मक धर्म है, उसका प्रतिपादन वर्धमान महामुनि ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर भेद का कारण क्या है? धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता?"
चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंच सिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी।। एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं।
धम्मे दुविहे मेहावि! कहं विप्पच्चओ न ते।। . गौतम ने कहा-धर्म के परम अर्थ की, जिसमें तत्त्वों का विनिश्चय होता है, समीक्षा से प्रज्ञा होती है--पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं।
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