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________________ रूपान्तरण २६६ शरीरशास्त्र का नियम है-एक अंग जख्मी हो जाए तो दूसरा अंग तत्काल उसकी सहायता में निकल पड़ता है। शरीर की ऐसी व्यवस्था है-एक अंग खराब होता है तो दूसरा उसका पूरा प्रतिनिधित्व करता है। दो गुर्दे काम करते हैं। यदि एक बेकार हो जाता है तो दूसरा उसका पूरा सहयोग करता है। एक आंख दूसरी आंख का, एक कान दूसरे कान का पूरा कार्य संभाल लेता है। दोनों समान नहीं होते। प्रकति की ऐसी विचित्र रचना है—बांयां अंग स्त्री को शक्तिशाली मिला और दायां अंग पुरुष को शक्तिशाली मिला। यदि वह जाग जाए तो व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। हम इतिहास को पढ़ें-समय-समय पर स्त्रियों ने अद्भुत कार्य किए हैं। जिसका चैतन्य जाग गया, वह विलक्षण बन गई। राजीमती का चैतन्य जाग उठा। जब अरिष्टनेमि का रथ मुड़ा, राजीमती के मन पर गहरी चोट लगी, उसका चैतन्य जागृत हो गया। भाग्य खुल गया दुःख आना बुरी बात नहीं है। कभी-कभी वह दुःख अभ्युदय का कारण बन जाता है। यदि राजीमती के मन को आघात और चोट नहीं लगती, उसका मन दुःख से नहीं भरता तो राजीमती राजीमती नहीं बन पाती, इतनी प्रबुद्ध और बहुश्रुत साध्वी नहीं बन पाती। चोट लगी और चैतन्य जागृत हो गया। जब अरिष्टनेमि वापिस चले गए तब उसकी व्यथा का कोई अंत नहीं था। ऐसा राजकुमार, जो दुनिया में ढूंढ़ने पर भी न मिले, घर के द्वार तक आकर लौट जाए। चोट में कोई कमी नहीं थी। कभी-कभी ऐसी चोट लगती है, अतीन्द्रिय चेतना स्वयं जाग उठती है। समाचार पत्रों में पढ़ा-एक व्यक्ति गिरा, चोट लगी और उस स्थान पर चोट लगी, अतीन्द्रिय चेतना खुल गई। उस व्यक्ति की भविष्यवाणियों से संसार चकित रह गया। तिब्बत में तीसरा नेत्र खोलने के लिए आपरेशन किया जाता है। अमुक स्थान पर चोट लगती है, भाग्य खुल जाता है। सचमुच राजीमती का भाग्य खुल गया और ऐसा भाग्य खुला, वह विलक्षण साध्वी बन गई। उसका चरित्र आज भी उदात्त, महान् और विलक्षण बना हुआ है। राजीमती ने उस समय जो तर्क प्रस्तुत किए, वे आज भी मानव-मन के अंधकार को चीरने वाले बने हुए हैं। राजीमती ने कहा-'आप कौन हैं! आपका वंश क्या है? उसकी ओर भी ध्यान दें। हमारा वह कुल है, जिसमें व्यक्ति संकल्प लेकर चल पड़ता है तो पीछे मुड़कर नहीं देखता। आपके पैर पीछे हट रहे हैं। ऐसे कुल मैं पैदा होकर आप क्या कर रहे हैं?' 'मैं भोजराज की पुत्री हूं और आप अंधकवृष्णि के पुत्र। ये दोनों महान् वंश हैं इस दुनिया में, जिनकी शक्ति और प्रभुत्व का दुनिया लोहा मानती है। हमने कभी पीछे हटना नहीं सीखा। इस कुल में पैदा होकर आप पीछे हट रहे हैं? यह आपके लिए अच्छा नहीं है। हम अपने कुल में गंधन सर्प की तरह न बनें। संयम में स्थिर रहना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। यदि आप स्त्रियों को देख कर इस प्रकार का भाव लाएंगे तो अस्थितात्मा बन जाएंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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