________________
४६
रूपान्तरण
एक राजा समर्थ और स्वतंत्र चिन्तन का धनी था। वह विद्वानों, कवियों और साहित्यकारों को बहुत प्रोत्साहन देता, खुले हाथ दान देता। विद्वानों को कभी अपनी गरीबी का अहसास कराने की जरूरत नहीं होती। जब इस प्रकार राज्य लक्ष्मी दूसरों के पास जाने लगी तब अधिकारी चिन्तित हो उठे। एक अधिकारी ने राजा से निवेदन किया-'राजन! आपके पुरखों-पूर्वजों ने बहुत धन संचित किया है, खजाना भरा है। आप उसे खुले हाथ लुटा रहे हैं, खजाना खाली हो जाएगा। क्या आपको ऐसा करना चाहिए? कुछ चिन्तन करें।'
राजा ने बहुत मार्मिक उत्तर दिया- 'मैं चौकीदार नहीं हूं। मैं राजा हूं। चौकीदार का काम है रखवाली करना। जो खजाना भरा हुआ है, उसकी रखवाली करना। अगर मेरे पिता ने मुझे चौकीदार बनाया होता तो मैं एक पैसा भी खर्च नहीं होने देता, चोरी भी नहीं होने देता, पर मैं चौकीदार नहीं हूं। मैं मालिक हूं। मैं खजाने को भर भी सकता हूं और खाली भी कर सकता हूं।'
__ मालिक होना बहुत मुश्किल है। अधिकांश लोग चौकीदारी का काम करते हैं। ईश्वर होना या मालिक होना प्रत्येक व्यक्ति के लिए संभव नहीं है।
साध्वी राजीमती ने देखा-रथनेमि अब चौकीदार बन रहा है। उसका ईश्वरपना छट रहा है। राजीमती ने रथनेमि को संबोधित करते हुए कहा-'मुनिवर! एक दिन आप साधुत्व के मालिक बने थे, ईश्वर बने थे। अब ऐसा लगता है-आप ईश्वर को छोड़कर चौकीदार बन रहे हैं। जिस खजाने के आप मालिक हैं, उसका मालिकपन समाप्त हो रहा है
गोवालो भंडवालो वा जहा तहव्वणिस्सरो।
एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि।। रथनेमि का प्रस्ताव
घटना प्रसंग इस प्रकार बना-अरिष्टनेमि राजीमती को छोड़कर प्रव्रजित हो गए। राजीमती के मन पर गहरा आघात लगा। इस प्रकार छोड़कर चले जाना उसके लिए असह्य बन गया। अरिष्टनेमि के भाई रथनेमि इसे अवसर समझ कर राजीमती के पास आने-जाने लगे। रथनेमि ने राजीमती को आश्वस्त करते हुए कहा—'देवी! विषाद मत करो। अरिष्टनेमि वीतराग हैं। वे विषयानुबंध नहीं करते। तुम मुझे स्वीकार करो। मैं जीवन भर तुम्हारी आज्ञा मानूंगा।'
राजीमती का मन काम-भोगों से विरक्त हो चुका था। उसे रथनेमि का प्रस्ताव उचित नहीं लगा। एक बार राजीमती ने मधु-घृत-संयुक्त पेय पीया। जब रथनेमि आए, राजीमती ने मदन फल खा उल्टी की। राजीमती ने कहा-'आप इसे पीएं।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org