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________________ रूपान्तरण २६५ 'वमन किये गये पेय को कैसे पीऊं?' 'क्या तुम यह जानते हो?' । 'यह बात तो छोटा बालक भी जानता है।' 'यदि यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें, जो वान्त को पीने की इच्छा करते हो! इससे तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। वंत इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ।। फिर फिसल गए राजीमती के संबोधन से रथनेमि आसक्ति से उपरत हो गए। अरिष्टनेमि केवली बन गए। रथनेमि भी प्रव्रजित हुए। राजीमती भी अनेक राजकन्याओं के साथ प्रव्रजित हो गई। एक बार अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत पर समवसृत थे। साध्वी राजीमती आदि साध्विया उनकी वन्दना के लिए जा रही थीं। अचानक वर्षा प्रारम्भ हो गई। सभी साध्वियां इधर-उधर गुफा में चली गई। राजीमती जिस गफा में गई, मुनि रथनेमि उसमें पहले से ही साधनारत थे। राजीमती को यह ज्ञात नहीं था। राजीमती ने अपने कपड़े सुखाने के लिए वस्त्रों को फैलाया। राजीमती को यथाजात (नग्न) देख रथनेमि का मन विचलित हो गया। अचानक राजीमती ने भी रथनेमि को देख लिया। वह शीघ्र ही अपनी बांहों से अपने आपको ढंकती हुई बैठ गई। उस समय मुनि रथनेमि ने साध्वी राजीमती से कहा-'भद्रे! मैं रथनेमि हूं। सुरूपे! चारुभाषिणी! तुम मुझे स्वीकार करो। तुम्हें कोई पीड़ा नहीं होगी। हम भोग भोगें। निश्चित ही मनुष्य जीवन दुर्लभ है। हम भुक्त-भोगी हो फिर जिनमार्ग पर चलेंगे रहनेमि अहं भद्दे! सुरूवे! चारुभाषिणी! मम भयाहि सुयगू! न ते पीला भविस्सई।। एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं सुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा, जिणमग्गं चिरिस्सिमो।। रथनेमि की इस प्रार्थना पर राजीमती ने जो तर्कपूर्ण संबोधन दिया, उसने रथनेमि के पतन को उत्थान में बदल दिया। हम केवल कथा को न पढ़ें। साध्वी राजीमती ने जो तर्क दिए हैं, उनका अनुशीलन भी करें। वे बहुत मार्मिक तर्क थे। शायद इसीलिए राजीमती को शीलवती के साथ-साथ बहुश्रुत भी कहा गया है। उसने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है-सचमुच वह बहुश्रुत साध्वी थी। उसके तर्क इतने वेधक थे, रथनेमि को चिन्तन के लिए बाध्य होना पड़ा। वे चौकीदारी से हटकर पुनः श्रामण्य के मार्ग पर प्रस्थित हो गए। राजीमती ने कहा-'मुनिवर! आप चिन्तन करें। आप ग्वाले को जानते हैं। चरवाहा सैंकड़ों गायों का झुण्ड लेकर जंगल में जाता है। वह गायों को चराता है, उनकी रखवाली करता है। शाम का समय होता है, वह गायों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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