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________________ २६० महावीर का पुनर्जन्म ने रोकने की कोशिश की-इतना कीमती हीरा कुए में क्यों डाल रहे हो? इसे किसी को बेच दो। हीरे खरीदने वाले बहुत मिल जाएंगे। उत्तमचंदजी ने भावपूर्ण शब्दों में कहा-मैं इस हीरे के कारण किसी पिता को पुत्र-वियोग से पीड़ित देखना नहीं चाहता। हीरे के कारण मेरा पुत्र चला गया, उसकी पीड़ा मैंने भोगी है। मैं नहीं चाहता, किसी पिता को पुत्र-वियोग से पीड़ित होना पड़े। बैंगानीजी ने वह अंगूठी कुए में डलवा दी। अरिष्टनेमि की जिज्ञासा यह है मानवीय चेतना का विकास। जिसमें करुणा का इतना विकास होता है, वह किसी को दुःख देने की बात सोच ही नहीं सकता। इन सारे संदर्भो में अरिष्टेनेमी द्वारा विवाह के अस्वीकार की बात को पढ़ते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होता। वे तीर्थकर होने वाले थे, उनकी अतीन्द्रिय चेतना जागृत थी, करुणा और अहिंसा विकसित थी। उनके जीवन का वह घटना प्रसंग सचमुच उदात्त करुणा का निदर्शन है। राजा वसुदेव के पुत्र अरिष्टनेमि का विवाह राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती से होने वाला था। अरिष्टनेमि की वर-यात्रा प्रारंभ हुई। वह विवाह मंडप के पास आई। उस समय अरिष्टनेमि करुण शब्दों को सुनकर द्रवित हो उठे। अरिष्टनेमि ने सारथी से पूछा-भाई! यह क्या है? सुख की चाह रखने वाले ये निरीह प्राणी इन बाड़ों और पिंजरों में क्यों रोके हुए हैं' कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्वा य अच्छहिं ? सारथी ने कहा-श्रीमन! ये भद्र प्राणी आपके विवाह में आए हुए बहुत लोगों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं। यह बात सुन अरिष्टनेमि के मन पर गहरी चोट लगी। उनके मन में घोर वेदना हुई। ऐसा लगा, जैसे स्वयं को बांधा गया है। अरिष्टनेमि ने सोचा-यदि मेरे निमित्त से इन निरीह जीवों का वध होता है तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है। हिंसा मनोरंजन के लिए जव तक सही अर्थ में करुणा या अहिंसा का विकास नहीं होता तव तक दूसरों के साथ तादात्म्य भाव नहीं जुड़ता। दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो दूसरों को दुःखी देखकर खुश होते हैं। समाचार पत्रों में पढ़ा-मनोरंजन के लिए खरगोशों को दौड़ाया जाता है, उसके पीछे कुत्तों को छोड़ दिया जाता है। जैसे जैसे वे कुत्ते खरगोशों को खाते हैं, उनको कष्ट होता है और लोग तालियों की गड़गड़ाहट से आकाश को गुंजा देते हैं। छोटे छोटे बच्चे मेंढकों को उछालते हैं, मारते हैं। वे मरते हैं तब बच्चों को बहुत मजा आता है। दूसरों को दुःख देने में, सताने और मारने में शायद बहुत लोगों को खुशी होती है। ऐसे लोग विरल हैं, जिनमें अहिंसा की निर्मल चेतना जाग जाती है। 'सव प्राणी समान हैं, जैसा मैं हूं वैसे ही दूसरे जीव हैं'–इस चेतना का जागना बहुत कठिन है। धार्मिक लोगों मे यह चेतना जग गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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