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________________ असहयोग का नया प्रयोग २८ बन गया-दूसरों को मारना और अपना जीवन चलाना। शेर, चीता, बाघ-ये मांसाहारी हैं। प्राणियों को मार कर खाते हैं। इसे हम क्रूरता कहें या प्रकृति का नियम, पर यह सिद्धान्त अवश्य लागू होता है-समर्थ असमर्थ को खाकर अपना जीवन चलाता है। मनुष्य के साथ शक्ति और क्रूरता-ये दोनों बातें जुड़ जाती हैं। मनुष्य में केवल शक्ति की बात भी नहीं है और अनिवार्यता की बात भी नहीं है। वह अपने बड़प्पन के लिए, अपनी सुख-सुविधा या आराम के लिए भी ऐसा करता है इसलिए उसके साथ क्रूरता भी पनप गई। प्राचीनकाल में गायों को इतने क्रूर तरीके से दुहा जाता था, जिससे पूरा दूध निकल जाए। आजकल लोग पूरा दूध निकालने के लिए इंजेक्शन लगाते हैं। आदमी में लोभ होता है। शक्ति, करता और लोभ का ऐसा गठबन्धन है, जिसके कारण अनेक निरीह पशु मारे जाते हैं। वह आदमी धन्य होता है, जो इससे बच पाता है। पशुओं में चिन्तन नहीं है। वे पहले जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। मनुष्य में चिन्तन का विकास हुआ है इसलिए उसने शक्ति को सीमित करने का सिद्धान्त भी बनाया। दो चिन्तनधाराएं शक्ति है पर शक्ति का संयम भी करना चाहिए। जिस दिन यह स्वर निकला, उस दिन दुनिया में एक महान सत्य की उद्घोषणा हुई। जिसने यह अनुभव किया-'सब जीव समान हैं, प्राणी मात्र मेरे मित्र हैं', उसने सबसे बड़े विज्ञान और सत्य की खोज की। कितना उदात्त सिद्धांत है-सबको अपने समान समझ लेना, किसी को सताने की बात मन में न आना। जब यह विचार उपजा, मनुष्य समाज में दो प्रकार की चिन्तनधाराएं चल पड़ीं। एक वह चिन्तनधारा, जो शक्ति और क्रूरता में विश्वास करने वाली है। एक वह चिंतनधारा, जो करुणा, अहिंसा और मैत्री में विश्वास करने वाली है। करुणा का निदर्शन श्रीमद् राजचंद्र की घटना को हम जानते हैं। राजचंद्र ने सौदा किया, उसमें उसे पचास हजार का लाभ हो रहा था। उस समय पचास हजार की कीमत भी बहुत थी। जिसके साथ सौदा किया, वह बहुत मुसीबत में फंस गया। राजचन्द्र ने उस एग्रीमेंट के पत्र को मंगाया और यह कहते हुए फाड़ दिया-राजचन्द्र दूध पी सकता है लेकिन किसी का खून नहीं पी सकता।। यह है मनुष्य में करुणा के विकास का निदर्शन। कहां से कहां तक पहुंचा दिया प्रकृति के नियम को। शक्ति के सिद्धांत को अतिक्रान्त कर श्रीमद् राजचन्द्र ने अहिंसा का जीवंत रूप प्रस्तुत कर दिया। बीदासर के संभ्रांत श्रावक हुए हैं श्री उत्तमचंद जी बैंगानी। उनके युवा पुत्र का देहावसान हो गया। पता चला-यह जो हीरे की अंगूठी है, जिसे आपका पुत्र पहनता था, वह अच्छी नहीं है। रत्नों की यह प्रकृति है-यदि वह अच्छा आता है तो निहाल कर देता है और बुरा आता है तो घर को बरवाद कर देता है। मित्रों ने सलाह दी-इस अंगूठी को बेच दें। उत्तमचंद जी ने कहा-मैं इसे बेचूंगा नहीं। इसे कुएं में डाल दो। उस अंगूठी में बहुत कीमती हीरा था। मित्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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