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________________ २८६ छह माह के लिए आचार्य भिक्षु सिरियारी से कुशलपुर की ओर जा रहे थे । मार्ग में अच्छे शुकून नहीं हुए । आचार्य भिक्षु ने कुशलपुर न जाकर नीमली की ओर जाने का निश्चय कर लिया। वे उस मार्ग को छोड़ नीमली की ओर जाने वाले मार्ग पर आ गए। श्रावक हेमराजजी सिरियारी से नीमली की ओर जा रहे थे । वे वैरागी थे । आचार्य भिक्षु ने कहा- 'हेमड़ा ! हम आ रहे हैं।' हेमराजजी बोले-‘स्वामीजी ! आपने तो कुशलपुर की ओर विहार किया था। फिर इधर कैसे?" 'यही समझ ले कि आज हम तेरे लिए आए हैं ।' 'आपने बड़ी कृपा की।' 'तू लगभग तीन वर्ष से कह रहा है— मेरी दीक्षा लेने की भावना है, पर यह बता - तू तेरे जीते जी दीक्षा लेगा या मरने के बाद?" 'आप ऐसी बात क्या करते हैं? यदि आपको शंका हो तो नौ वर्ष बाद अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग करा दें ।' आचार्य भिक्षु ने त्याग करवा दिया। स्वामीजी ने कहा- लगता है तुमने ये नौ वर्ष विवाह करने की इच्छा से रखे हैं। पर तुम यह तो जानते हो - एक वर्ष विवाह होते-होते लग जाएगा ।' 'हां महाराज! इतना तो लग ही जाएगा।' 'यहां की प्रथा के अनुसार विवाह के बाद एक वर्ष तक स्त्री पीहर में रहेगी। इस प्रकार तुम्हारे पास केवल सात वर्ष का समय रहेगा ।' 'हां महाराज!' 'तुम्हें दिन में अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग है इसलिए साढ़े तीन वर्ष ही रहेंगे ।' महावीर का पुनर्जन्म हेमराजजी ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया । 'तुम्हें पांच तिथियों में भी अब्रह्मचर्य सेवन का त्याग है ।' 'हां महाराज!' 'दो वर्ष चार मास का समय ही बचता है । उसमें सारा समय भोग कार्य में नहीं लगता । प्रतिदिन घड़ी भर का समय गिनो तो लगभग छह माह का समय ही रहता है ।' 'हां महाराज!' 'तुम सोचो – छह माह के भोग के लिए नौ वर्ष का संयम खो देना कौन-सी बुद्धिमानी है? तुम यह भी सोचो - यदि एक-दो संतान हो जाए तब फिर व्यक्ति मोह में उलझ जाता है । उस स्थिति में संयम लेना कितना कठिन हो जाता है ।' आचार्य भिक्षु का यह लेखा-जोखा हेमराजजी के दिल को छू गया । उनकी वैराग्य भावना को आकार मिल गया । आचार्य भिक्षु की प्रेरणा और तर्कपूर्ण संबोध मिला, हेमराजजी श्रावकत्व से साधुत्व की भूमिका में पहुंच गए। प्रश्न है—यह प्रेरणा हेमराजजी में ही क्यों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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