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चौर्य से अचौर्य की प्रेरणा
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नहीं होता। उसका उपादान इतना शक्तिशाली बन गया कि उसके लिए वह निमित्त बनता ही नहीं है। वीतराग को कोई गाली दे। क्या वीतराग को क्रोध
आएगा? एक साधारण आदमी को गाली दें तो क्या होगा? वह फुफकारेगा ही नहीं, काटने भी आ जाएगा। क्योंकि उसका उपादान बहुत कमजोर है।
यह एक बहुत बड़ा विवेक है-निमित्त को सर्वथा गौण न मानें किन्तु निमित्त को उतना महत्त्व भी न दें, जितना उपादान का है। निमित्त को महत्त्व देते हुए भी उपादान को शक्तिशाली बनाना है। अवीतरागता से वीतरागता की ओर, अप्रमाद से प्रमाद की ओर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर वही व्यक्ति प्रस्थान कर सकता है, जो उपादान को जानता है। उपादान है आत्मा। जिसने आत्मा को नहीं पकड़ा, परमात्मा को नहीं पकड़ा, अपने प्रभु की शरण नहीं ली, वह निमित्तों से बहुत प्रभावित हो जाता है। जो अपने प्रभु की शरण में चला जाता है, वह बहुत बच जाता है। हमारे भक्त-संतों ने बार-बार शरणागति की बात कही। उसका अर्थ यही है----अपना प्रभु शक्तिशाली बनता चला जाए, बाहर का प्रमाद कम होता चला जाए। यंत्रशास्त्र में कवच निर्माण का सिद्धांत प्रतिपादित है जो कवच का निर्माण करना नहीं जानता, वह मंत्र की साधना ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। कवच में व्यक्ति सुरक्षित हो जाता है। उस कवच को छेदकर कोई दुष्ट शक्ति प्रवेश नहीं कर सकती। बाहर निमित्त प्रस्तुत हैं पर वे कवच को भेद कर भीतर प्रवेश नहीं कर सकते। हम रामायण में पढ़ते हैं.-लक्ष्मण ने एक रेखा खींच दी, रावण उसे भेद नहीं सका। अंजना ने रेखा खींच दी, शेर भीतर प्रवेश नहीं कर पाया। यह एक प्रकार का रक्षाकवच है। साधना करते समय वज्रपंजर का निर्माण भी इसीलिए किया जाता है। साधना का मूल सूत्र है-उपादान को शक्तिशाली बनाकर निमित्त की शक्ति को कम कर देना।
. हम व्यवहार के क्षेत्र में देखें। प्रत्येक व्यक्ति जब चाहे बीमार बन सकता है। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसके शरीर में अनेक बीमारियों के कीटाणु न हों। हमारे शरीर में सैकड़ों-सैकड़ों बीमारियों के कीटाणु भरे पड़े हैं। हमारे शरीर में जितने जर्स हैं, उनका लेखा-जोखा करना मुश्किल है। फिर भी आदमी सहज ही बीमार नहीं बनता। जब उपादान कमजोर हो जाता है तब वह बीमार बनता है। जिसका नाडीतंत्र कमजोर हो गया, रोग-निरोधक क्षमता या शक्ति कमजोर हो गई, वह बीमार बनता है।
समुद्रपाल को वैराग्य हुआ। उसके मन में चोर को देखकर अचौर्य की प्रेरणा जाग गई। एक आकस्मिक निमित्त बन गया चोर। मूलतः समुद्रपाल का उपादान बहुत शक्तिशाली था, वह फूटना ही चाहता था। चोर का निमित्त मिला और वह प्रगट हो गया। व्यक्ति कुछ होना चाहता है और कोई निमित्त मिल जाता है तो व्यक्ति की चेतना जाग जाती है। कोई गुरु या मार्गदर्शक का योग मिलता है, व्यक्ति के भीतर की चाह आकार ले लेती है।
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