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________________ जब धर्म अफीम बन जाता है २७७ प्रसन्न किए बिना कुछ मिलता नहीं। अपने स्वार्थ के लिए कवि लोग राजा की विरुदावली करते थे। कभी-कभी उन विरुदावलियों को पढ़कर बहुत आश्चर्य होता है। कवि ने राजा की प्रशंसा में एक श्लोक कहा कल्पद्रुमो न जानाति, न ददाति वृहस्पतिः। अयं तु जगतीजानिः, जानाति च ददाति च।। राजन! कल्पवृक्ष बहुत बड़ा है। वह व्यक्ति को बहुत कुछ देता है पर वह ज्ञानी नहीं है। वृहस्पति ज्ञानी है पर वह कुछ देता नही है। आप ही इस दुनिया में ऐसे महापुरुष हैं, जो जानते भी हैं और देते है। आप कल्पवृक्ष से भी बड़े हैं, वृहस्पति से भी बड़े हैं। यह स्वार्थ का परिणाम है-कल्पवृक्ष को भी नीचा दिखा दिया और वृहस्पति को भी। सौ-दौ सौ रुपये पाने के लिए व्यक्ति किस स्तर पर चला जाता है! यह स्वार्थ की वृत्ति बहुत व्यापक है। धार्मिक लोग भी इससे मुक्त नहीं हो रहे हैं। जब जब धर्म के साथ स्वार्थ जुड़ा, वह प्रबल बना तब तब सचमुच हिंसा का दारुण रूप सामने आया है। धर्म के नाम पर, ईश्वर को जो सृष्टि का निर्माता मानते हैं, पालक और संरक्षक मानते हैं, उस ईश्वर के नाम पर हिंसा हो, यह सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन जब बीच में व्यक्ति का स्वार्थ आड़े आता है तब ये स्थितियां बनती हैं। स्वार्थ की प्रबलता हुई, धर्म की परिभाषाएं बदल गई। आज धर्म की कितनी परिभाषाएं हैं! इस संसार में सात सौ आठ सौ धर्म माने जाते हैं। इतने धर्म हैं, पर धर्म की परिभाषाएं दो हजार से कम नहीं हैं। जहां स्वार्थ आता है, परिभाषा बदल जाती है, व्यक्ति का रूप बदल जाता है। धर्म का कार्य एक व्यक्ति से पूछा गया- आपकी उम्र क्या है?' उत्तर मिला-'पचास वर्ष ।' फिर पूछा-'आपको नौकरी करते कितने वर्ष हो गये?' उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-'पचपन वर्ष ।' व्यक्ति यह सुनकर विस्मित रह गया। उसने कहा-'अरे भाई! ये दोनों बातें कैसे होंगी?' व्यक्ति बोला-'मैंने बहुत ओवरटाईम काम किया है।' __ आदमी परिभाषा बदल देता है। आज धर्म की इतनी परिभाषा बदल गई, इतने स्वरूप बदल गए कि उसे मूल रूप से पहचानना भी कठिन है। जो धर्म व्यक्तित्व का निर्माण करने वाला था, जिसका सबसे बड़ा कार्य अहिंसा की स्थापना था, यदि वह धर्म अहिंसा की स्थापना नहीं करता है तो न वह ईश्वरीय धर्म हो सकता है, न ईश्वर के दरबार में न्याय दिलाने वाला हो सकता है। व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा, समाज के प्रति व्यवहार में अहिंसा बहुत बड़ा धर्म है। यह इतना बड़ा तत्त्व है, जो जीवन की अपूर्णता को पूर्णता में बदलता है, जीवन के धब्बों को एक चित्र में बदल देता है। इंग्लैंड के प्रख्यात साहित्यकार जॉन रस्किन एक समारोह में गए : उनके पास बैठी युवती के हाथ में एक सुन्दर रुमाल था। उसे उपहार में मिला था। अकस्मात उस रुमाल पर कछ गिरा, रुमाल पर गहरा धब्बा हो गया। रुमाल की यह स्थिति देखकर युवती उदास हो गई। जॉन रस्किन युवती से बोले-'बहन! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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