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महावीर का पुनर्जन्म
धर्म के दो रूप
धर्म के दो रूप है-वैयक्तिक धर्म और संस्थागत धर्म। वैयक्तिक धर्म शद्ध आध्यात्मिक होता है। संस्थागत धर्म सांप्रदायिक धर्म है। मार्क्स ने धर्म का विरोध नहीं किया। बहुत लोग इस सचाई को नहीं जानते-मास धर्म का विरोधी नहीं था। साम्यवाद भी धर्म का विरोधी नहीं है। अनेक लोगों की यह धारणा रही-साम्यवाद धर्म को उठाने वाला है। वास्तव में ऐसा नहीं है। न मार्क्स धर्म का विरोधी था और न साम्यवाद धर्म का विरोधी रहा। उसने विरोध किया उस संस्थागत धर्म का, जो सत्ता के साथ जुड़ गया। मार्क्स ने राजनीति, सत्ता और पैसे से जुड़े धर्म का ही प्रखर विरोध किया था।
हम भगवान महावीर की भाषा को पढ़ें। महावीर ने भी सत्ता, धन और विषयों से युक्त धर्म को विनाशकारी कहा है। महावीर की भाषा है—पिया हुआ कालकूट विष, अविधि से पकड़ा हुआ शस्त्र और नियंत्रण में नहीं लाया हुआ वैताल जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विषयों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है
विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं।
एसो व धम्मो विसओबवन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।। विरोध क्यों होता है?
__ जिस धर्म का महावीर ने विरोध किया, उस धर्म का मार्क्स ने भी विरोध किया और आज का प्रत्येक प्रबुद्ध एवं चिन्तनशील व्यक्ति उस धर्म का विरोध करेगा। वह सत्ता, राजनीति, धन और विषयों से जुड़े धर्म का विरोध किए बिना नहीं रहेगा। धर्म का जो शुद्ध रूप है अहिंसा, संयम और तप, उसका कोई विरोध नहीं कर सकता। जब धर्म के साथ स्वार्थ जुड़ता हैं, हिंसा जुड़ती हैं तब उसका विरोध होता है। धर्म के नाम पर अनेक संप्रदायों ने हिंसा की है। जब यह भावना पैदा हो गई-मेरे धर्म-संप्रदाय को सारा संसार माने। यदि सहजता से न माने तो भय और प्रलोभन से मनवाया जाए, तलवार के बल पर जबरदस्ती मनवाया जाए। जब यह भावना प्रबल बनी, तब अहिंसा के माध्यम से विश्व-शान्ति की बात करने वालों ने हिंसा का सहारा लिया और विश्व में अशान्ति का उद्घोष हो गया। जब सत्ता-लोलुप व्यक्ति धर्म के आसन पर आसीन हो जाते हैं, बलपूर्वक सबको अपने धर्म में दीक्षित करना चाहते हैं तब हिंसा और अशान्ति का साम्राज्य प्रसार पाता है। यह जो स्वार्थ है, जबर्दस्ती अपने धर्म के विस्तार का जो प्रयत्न है, उसका संबंध धर्म के साथ नहीं है। जब-जब यह स्वार्थ बढ़ता है, व्यक्ति अनश्वर से हटकर नश्वर के साथ जुड़ जाता है। व्यक्ति के स्वार्थ के आधार पर ही शायद धर्म की अनेक परिभाषाएं बन गई। स्वार्थ के लिए
एक जमाना राजाओं का रहा। उस समय उनका एक-छत्र साम्राज्य चलता था। एक कवि गया राजदरबार में। उसे राजा से कछ पाना था। राजा को
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