SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३ जब धर्म अफीम बन जाता है धर्म उत्कृष्ट मंगल है। प्रश्न हुआ-कौनसा धर्म उत्कृष्ट मंगल है? उत्तर दिया गया-अहिंसा, संयम और तपोमय जो धर्म है, वह उत्कृष्ट मंगल है। जहां हिंसा, असंयम और अतप है, वहां धर्म मंगल नहीं है। धर्म मंगल भी है, अमंगल भी है। धर्म के ये दोनों रूप हमारे सामने आते हैं। हम धर्म की समस्याओं पर विचार करें। धर्म के प्रति आकर्षण बहुत है। प्रश्न होता है-धर्म के प्रति आकर्षण क्यों है? इसका कारण क्या है? प्रत्येक धर्म के साथ एक अविनाशी शाश्वत सत्ता जुड़ी हुई है। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जिसके साथ परम सत्ता का संबंध न हो। खुदा, महाप्रभु यीशु, परमेश्वर, ब्रह्मा, परमात्मा, सिद्ध-किसी न किसी रूप में कोई परम सत्ता जुड़ी हुई है। अविनश्वर सत्ता के बिना धर्म के प्रति उतना आकर्षण नहीं हो सकता। अज्ञात या अदृश्य के प्रति, शाश्वत शक्ति के प्रति आकर्षण अधिक होता है। प्रत्येक धर्म ने अपने साथ परम सत्ता का सम्बन्ध स्थापित किया है इसीलिए धर्म के प्रति आकर्षण है। शेष सामयिक और तात्कालिक हो सकते हैं लेकिन स्थायी आकर्षण का केन्द्र धर्म ही है। पैसे के प्रति आकर्षण है पर जितना आकर्षण परम सत्ता के प्रति है. उतना पैसे के प्रति नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है-पैसा पैसा है पर वह यह भी जानता है-आखिर कुछ नहीं है। वह यह मानता है-परम सत्ता ही सब कुछ है इसीलिए धर्म के प्रति बहुत आकर्षण है। यदि हम इस दृष्टि से चिन्तन करें, परम सत्ता की दृष्टि से देखें तो प्रायः सारे धर्म एक बिन्दु पर आ जाते हैं। जैन दर्शन में जो परमात्मा है, वही परम सत्ता है इसीलिए आचार्य हरिभद्र सूरि ने लिखा-कहा जाता है-जैन लोग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। इस पर सापेक्ष दृष्टि से सोचें। जैन दर्शन मानता है-आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा ही ईश्वर है इसलिए इसमें कोई दोष नहीं आता। इस दृष्टि से जैन दर्शन भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है। निष्कर्ष की भाषा यह है-केंचुली ऊपर चढ़ी हुई है, उसे हम हटा दें तो धर्म का शुद्ध रूप मिल जाए। धर्म के केन्द्र में है परम सत्ता। उसकी परिधि में ही सारे धर्म चल रहे हैं। परिधि केन्द्र से जुड़ी हुई है। अन्तर है उपासना का या कुछ सिद्धान्तों की स्वीकृति का। धर्म के उद्देश्य में भी कुछ अन्तर हो सकता है, किन्तु धर्म के मूल रूप में शब्द बहुत निकट आ जाते हैं। उपासना पद्धति, सिद्धान्त या उद्देश्य का जो अंतर है, उससे भी अधिक अन्तर है स्वार्थ का। धर्म के साथ व्यक्ति का स्वार्थ भी जुड़ जाता है। सब लोग समान नहीं होते। वे धर्म के साथ अपने स्वार्थ का संबंध स्थापित कर देते हैं। धर्म को संस्थागत रूप मिला, यह आवश्यक था किन्तु साथ में स्वार्थ का मुलम्मा और चढ़ा दिया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy