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महावीर का पुनर्जन्म
घटना होने पर हम निमित्तों को खोजते हैं, उन पर आरोपण कर देते हैं, इससे क्या होगा ? मन का तनाव बढ़ेगा, बुद्धि कुण्ठित होगी और जो कुछ प्राप्त है, वह चला जाएगा। इसका परिणाम यह हुआ-निमित्त पैदा करने वाला सफल हो गया ।
वह
चाहता ही है-अमुक व्यक्ति गिरे। उस स्थिति में हम निमित्तों और परिस्थितियों को सफल न होने दें। हम यह प्रयास करें-ज्ञान जड़ न बने, शक्तियां कुण्ठित न बने, आनन्द विलुप्त न हो जाए । यह सूत्र हाथ लगता है तो भगवान महावीर का, अनाथी मुनि या जैन दर्शन का आत्मकर्तृत्व का सिद्धांत कोरी दार्शनिक भावना नहीं रहेगी किन्तु हमारा अध्यात्म का सूत्र बनेगा।
आज इस सूत्र की बहुत जरूरत है । हमारी दिशा बदले। हम बाहर ही नहीं, भीतर में भी जीएं। अपनी अपूर्णताओं को देखे बिना, अपनी कमियों और कठिनाइयों को देखे बिना, समस्याओं का गहराई से चिन्तन और आत्मालोचन किए बिना हमारा देखने का कोण दूसरा बनेगा । दृष्टिकोण बदलता है तो सारी घटनाएं बदल जाती हैं । इसीलिए भगवान ने ज्यादा बल दिया सम्यक् दृष्टिकोण पर। थोड़ी-सी विपरीत घटना होने पर लोग बोलना बंद कर देते हैं, रूठ जाते हैं, भोजन भी बंद कर देते हैं । यह सारा चक्र जो चल रहा है, वह इसीलिए चल रहा है कि हम निमित्त पर अटके हुए हैं ।
अनाथी मुनि ने एक सुन्दर दर्शन दिया। यदि हम इन दो श्लोकों को निकाल दें तो अध्यात्म निष्प्राण बन जाएगा । यद्यपि दर्शन पर बहुत चर्चा हुई है । नैयायिक वैशेषिक- ये ईश्वर-कर्तृत्ववादी रहे। जैन-बौद्ध-ये आत्मकर्तृत्ववादी रहे । पर यह सूत्र मूलतः अध्यात्म का है और अध्यात्म में भी निश्चय का है यह सूत्र । व्यवहार में परिस्थिति, वातावरण और निमित्तों को दोष दिया जा सकता है परन्तु अध्यात्म और निश्चय की भाषा में यह समझना चाहिए कि अभी अध्यात्म का क खग भी नहीं समझा गया है। कितना बड़ा रहस्य अनाथी मुनि ने बात-बात में प्रस्तुत कर दिया। आज भी हमारे सामने यह श्लोकद्वयी प्रस्तुत है । 'यत् वक्तव्यं तत् निःशेषम्' – जो कहना था, वह इसमें शेष हो गया। इसके अतिरिक्त अध्यात्म का कोई वक्तव्य नहीं है । सारा अध्यात्म इसमें सम्पन्न होता है । ये दोनों श्लोक अत्यन्त मननीय हैं। हम इनका मनन करें। गहराई में जाने पर जो मिलेगा, वह हमारे जीवन के लिए आलोक बन जाएगा।
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