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________________ मैं थामे हूं अपने भाग्य की डोर २७३ अनाथी मुनि ने कहा- 'मैं वहां पहुंच गया हूं, जिसे उपादान की भूमिका कहें, निश्चय की भूमिका या आत्मदर्शन की भूमिका कहें। यह वह भूमिका है, जहां आनन्द का स्रोत मिलता है, ज्ञान और शक्ति का स्रोत मिलता है ।' घटना और संवेदन हम सुख और दुःख का आरोपण भी दूसरों पर कर देते हैं । हमारा सारा ध्यान इसी पर अटका हुआ है। कोई घटना घटती है, तत्काल मन में आता है कि उसने ऐसा कर दिया, उसने ऐसा कह दिया। कोई निमित्त होता ही नहीं है, ऐसी बात नहीं है । अनेकांत को मानने वाला निमित्तों को अस्वीकार नहीं करेगा । निमित्त हो सकते हैं पर निमित्त केवल घटना प्रस्तुत कर सकता है किन्तु सुख-दुःख नहीं दे सकता। सुख-दुःख का संवेदन होना एक बात है और सुख - दुःख की घटना पैदा कर देना बिल्कुल दूसरी बात है। मलेरिया के कीटाणु मलेरिया पैदा कर सकते हैं । यक्ष्मा के कीटाणु यक्ष्मा पैदा कर सकते हैं। ये कीटाणु या वायरस निमित्त बन सकते हैं । हम इस सचाई को समझें - बीमारी का होना एक घटना है और सुख-दुःख भोगना दूसरी बात है । क्या यह सम्भव है - बीमारी हो पर दुःख न हो? यह बात समझ में आ जाए तो महत्त्वपूर्ण सचाई उपलब्ध हो जाए। हमने दोनों को एक मान रखा है। बीमारी होने का मतलब है - दुःख का होना और दुःख होने का मतलब है- विपरीत परिस्थिति का होना । हमने इनको एक मान लिया, यही मिथ्या दृष्टिकोण है । वस्तुतः दुःख का संवेदन नितांत आंतरिक है। इसका संबंध केवल कर्म से है। वेदनीय कर्म से इसका सम्बन्ध है या इससे जुड़े मोहनीय कर्म से इसका सम्बन्ध है, किंतु घटना का किसी से सम्बन्ध नहीं है। उसे कोई भी पैदा कर सकता है। वर्षा बरसती है और ठण्डी हवा चलती है। उससे एक व्यक्ति को सर्दी लगती है, दूसरे व्यक्ति को बहुत अच्छी लगती है । घटना तो एक है पर अनुभूति अलग-अलग । प्रश्न हो सकता है—घटना समान होने पर भी अनुभूति में अन्तर क्यों? शरीर की प्रकृति का अन्तर है या अपने संवेदन का अन्तर? एक घटना होने से एक व्यक्ति तो रोने लग जाता है और इसी घटना से प्रभावित दूसरा व्यक्ति कहता है- कोई बात नहीं, मुझे गहरे में जाना चाहिए । इन बाह्य प्रकोपों से मुक्त रहना चाहिए ! एक ही घटना से एक व्यक्ति क्रोधित होता है और एक आदमी अन्तर्मुखी हो जाता है, जागरूक बन जाता है। अगर सारा भार परिस्थितियों और निमित्तों पर डाल दें तो उत्तरदायित्व किसका होगा? क्या उत्तरदायित्व परिस्थिति वहन करती है? वह उत्तरदायित्व का भार नहीं ओढती । सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति का है, यह अध्यात्म का बहुत बड़ा सत्य है । इसका जितना-जितना साक्षात्कार होता है उतना ही व्यक्ति सुख-दुःख से परे होता चला जाता है। अध्यात्म का स्वर मुनि ने जो बात कही है, वह अध्यात्म का स्वर है । एक पहुंचा हुआ व्यक्ति ही ऐसी अनुभूति की बात कह सकता है। यह कोरा दर्शन का सिद्धांत नहीं है, अनुभूति का सिद्धांत है । मेरी आत्मा ही कर्ता और विकर्ता है। कोई भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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