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________________ २७२ महावीर का पुनर्जन्म पीड़ा से नहीं बचा सका। मेरा अपना संकल्प ही मेरे काम आया, मेरी रक्षा करने वाला बना। मैं इस गहराई में चला गया हूं-जो स्रोत है, वह अपने भीतर ही है।' __ हमारी बाहर की खोज बहुत चलती है। वह इसलिए चलती है कि हम पर से बहुत परिचित हो गये। हम स्व और पर-दोनों को जानते हैं किन्तु हम ज्यादा पर से ही परिचित हैं। हमारे सामने ज्यादा पर ही आता है इसलिए हम स्व की बात समझ नहीं पाते। हमारी साधना के विषय में भी ऐसी ही है। लगता है-स्व की दिशा में चल रहे हैं परन्तु वास्तविकता में हम पर की ओर चले जाते हैं। कैसा शान्त सहवास? भगवान बुद्ध ने कुछ स्थविरों को निर्देश दिया-अमुक गांव में चतुर्मास करके आओ। तीस चालीस भिक्षु थे। उन्होंने पहले गोष्ठी कर चिंतन किया-ऐसी व्यवस्था बनाएं ताकि हमारा सहवास शान्त बने। उन्होंने वर्गानुसार संयोजक बना लिए. सबको अपना काम बांटकर समझा दिया। व्यवस्था हो गई। फिर सोचा-कोई कलह नहीं हो उसके लिए और क्या-क्या करना चाहिए। एक सुझाव आयाहमें मौन करना चाहिए। एक भिक्षु ने तर्क प्रस्तुत किया-मौन करने से क्या होगा? वह तो एक या दो घंटा किया जाएगा। बाईस घंटे शेष रह जाते हैं। लड़ाई होनी है तो हो ही जाएगी। तीसरे भिक्षु ने सुझाव दिया-हम सब भिक्षु चार महीनों का मौन कर लें। यह सुझाव सबको अच्छा लगा। सब भिक्षुओं ने मान्य कर लिया। शांत सहवास बीता। झगड़ा, आरोप, प्रत्यारोपं, कलह कुछ भी नहीं हुआ। चातुर्मास पूरा हो गया। भिक्षुओं ने सोचा-हम बुद्ध के पास जायेंगे, हमें प्रशंसा मिलेगी। भिक्षु बुद्ध के पास आए। भगवान बुद्ध ने कुशलक्षेम पूछा। भिक्षुओं ने सारी व्यवस्थाओं के बारे में बताया। उन्होंने कहा-'हम सब चार महीने बिलकुल मौन रहे, बड़ा शांत सहवास बीता।' बुद्ध बोले-'भिक्षुओ! यह क्या किया? इससे तो अच्छा रहता कि पशुओं का टोला लाकर खड़ा कर लेते। तुम्हारे खर्च का बोझ तो नहीं बढ़ता। तुम वहां परस्पर बातचीत करते, लोगों को धर्म की बातें बताते, ज्ञान देते, फिर शांत सहवास बिताकर आते तब कुछ श्रेयस्कर कार्य होता। यह तो ठीक वैसा हुआ, जैसे पशुओं का टोला काम करता जब हम केवल निमित्तों पर ही अटक जाते हैं, भीतर के स्रोत तक नहीं जाते, समस्या का समाधान नहीं होता। शायद इसीलिए स्थविरकल्पी को अधिक महत्त्व दिया गया। स्थविरकल्पी सबके साथ रहकर अपना नियन्त्रण करता है। उस स्थिति में अनुशासित रहकर शांत सहवास करता है, जितेन्द्रिय रहता है। शायद यह बड़ी साधना है। अकेले जंगल में साधना करने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है शहर में रहकर साधना करना। एक साधक ने बीस-पच्चीस वर्ष हिमालय में रहकर साधना की। उसके बाद आश्रम में आकर बैठा तो लड़ाइयां करने लगा। साधना, की कसौटी होती है समुदाय में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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