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मैं थामे हूं अपने भाग्य की डोर
मुनि अनाथी ध्यान सम्पन्न कर एक वृक्ष के नीचे खड़े हैं। सम्राट श्रेणिक उपपात में हाथ जोड़कर खड़ा है। उसने पूछा-'भंते! आप नाथ हो गए पर आपने पाया क्या? घर छोड़ दिया, मुनि बन गए, आपको क्या मिला?'
मुनि बोले-'मैंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया, सत्य को पा लिया। सत्य को केवल सुना-पढ़ा नहीं, स्वयं पा लिया है।' ___भंते! बतलाएं, आपने जो जाना है, वह सत्य क्या है?'
मुनि ने कहा-'आत्मा वैतरणी नदी है, कूट शाल्मली वृक्ष है, कामधेनु और नंदनवन है। आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है।
अप्पा णई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणु, अप्पा मे नदणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ। इन दो श्लोकों में इतने बड़े सत्य का उद्घाटन हुआ है कि उसकी अनेक दार्शनिक परिक्रमाएं हुई हैं। तीन निर्णायक सत्य
अनाथी मुनि ने कहा-'सम्राट! मैंने इस सत्य को पा लिया। मेरे संकल्प की स्वतंत्रता है। हर व्यक्ति अपना संकल्प करने में स्वतंत्र है। सकंल्प की शक्ति है इसलिए मुझे अपने नैतिक नियमों के निर्धारण करने का अधिकार है। कर्तव्य
और अकर्तव्य का निर्णय करने का मुझे अधिकार है। तीसरी बात है-मैं अपने कृत का स्वयं उत्तरदायी हूं। इन तीन सत्यों का साक्षात्कार मैंने किया है-संकल्प की स्वतंत्रता, नैतिक नियमन और उत्तरदायित्व ।'
जिस व्यक्ति को ये तीन निणार्यक सत्य मिल जाते हैं, उसके जीवन की दिशा बदल जाती है। सबसे बड़ी कठिनाई यह है-हम संकल्प की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं कर रहें हैं। दो धाराओं के बीच हमारा जीवन चल रहा है। कुछ लोग कहते हैं-हमारा भाग्य ईश्वर के हाथ में है। वह जैसे चलाता है, हम चलते हैं। कुछ लोग सोचते हैं-आदमी वही करता है, जैसी परिस्थिति होती है। ईश्वरवाद और परिस्थितिवाद के बीच हमारी संकल्प की स्वतंत्रता खोई हुई है।
मुनि ने कहा-'मैं इन दोनों से हटकर इस निर्णय पर पहुंच गया हूं-मेरा संकल्प स्वंतत्र है। मैंने इसका प्रयोग करके देख लिया है। मुझे कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only
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