________________
२७०
महावीर का पुनर्जन्म
राजा मुनि के चरणों में सिर झुकाकर बोला-'भंते! आपने बहुत कृपा की, बहुत अनुग्रह किया, मुझे एक नया दृष्टिकोण दिया। अनाथ कौन होता है
और नाथ कौन होता, मैं यह समझ गया।' जो व्यक्ति दूसरे पदार्थों पर अपना प्रभुत्व या अधिकार रखता है, वह सही अर्थ में नाथ नहीं होता। नाथ वह होता है जो अपने पर अपना अधिकार रखता है। अपना नाथ वहीं हो सकता है, जिसके जीवन में व्रत आ जाता है। नाथ होता है रक्षा करने वाला, योगक्षेम करने वाला। व्रत से अधिक शायद दुनिया में कोई बचाने वाली शक्ति और तत्त्व नहीं है। मुनिवर! मुझे बहुत अच्छा संबोधन दिया।' ।
दोनों एक बिन्दु पर आ गये, भाव और भाषा की दूरी मिट गई। स्व और स्वामित्व का प्रश्न
एक बहुत बड़े सत्य का उद्घाटन इस प्रसंग में हुआ है। अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-जो व्यक्ति नाथ की भूमिका पर पहुंच जाता है, वही व्यक्ति वास्तव में आध्यात्मिक बन सकता है। इस भूमिका पर आए बिना अध्यात्म की बात सोची नहीं जा सकती। बहुत जटिल प्रश्न है-मुनि का धन क्या है? वह उसका स्व है अतः वह उसका स्वामी है। तप उसका 'स्व' है इसलिए वह तपस्वी है। योग उनका स्व है इसलिए वह योगी है।
हम अध्यात्म के रहस्यों को समझें तो एक भ्रांति का निरसन हो सकता है। जो हमारा स्व नहीं है, वहां हम अपना स्वामित्व बनाए बैठे हैं और इसीलिए छोटे से भूमि के टुकड़े के लिए बड़े-बड़े संघर्ष और युद्ध हो जाते हैं। भूमि के लिए कहा गया-यह ऐसी कुंवारी कन्या है, जिसकी आज तक शादी हुई ही नहीं, जिसे कोई ब्याह ही नहीं सका और इसके लिए भी लड़ाई होती है। धन किसी का स्व नहीं है पर इसे स्व मान लिया गया। जो स्व नहीं है, उस पर हमने अपने स्वामित्व का आरोपण कर लिया। ज्ञान, दर्शन और चारित्र जो हमारे स्व हैं, उनको हमने जाना नहीं। यह स्व और स्वामित्व का जो अन्तराल है, वह सारे संघर्षों का हेतु बन रहा है। जब तक व्यक्ति स्व और स्वामित्व, नाथ और अनाथ के इस रहस्य को विमर्श पूर्वक स्वीकार नहीं करता, तब तक वह अध्यात्म के क्षेत्र में अपना उन्नयन नहीं कर सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org