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________________ २५२ महावीर का पुनर्जन्म साक्षात् देख लिया है। मैं इसीलिए साधु बन रहा हूं कि उन वृत्तियों को जीतकर दुर्बलताओं को मिटा सकुँ ।' जिस व्यक्ति में यह आत्म-विश्वास जाग जाता है, वह सफल बन जाता है। मृगापुत्र का आत्म-विश्वास जाग गया। यह केवल मृगापुत्र की ही बात नहीं है, दुनिया में सैकड़ों ऐसी घटनाएं हुई हैं। जहां-जहां आत्म-विश्वास जगा है, आदमी सफल बना है। आत्म-विश्वास की निष्पत्ति ___ बैंजामिन फ्रेंकलिन १७ वर्ष की आयु में घर से निकल गया। कारण बना, बड़े भाई का व्यवहार। वह घर से बेघर हो गया। एक भाषा में अनगार हो गया। न्यूयार्क गया और वहां प्रेस में नौकरी मिल गई। माता-पिता को बड़ी चिन्ता हुई, खोज शुरू की और पता मिलते ही पत्र लिख दिया। पत्र के उत्तर में बैंजामिन ने जो पत्र लिखा, वह बहुत ही मार्मिक था। उसने लिखा- 'माता-पिता! आप मेरी चिन्ता न करें, मैं प्रसन्न हूं। मुझे नौकरी मिल गई है, काम कर रहा हूं। आपको यह संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं सफल होऊंगा या नहीं?' उन्होंने लिखा-'यदि इस दुनिया में ईमानदारी, अध्यवसाय, मितव्ययिता, परिश्रम और मादक द्रव्यों से परहेज करना ये सफल होंगे, तो निश्चित ही मैं अपने जीवन में सफल बनूंगा और ये सफल नहीं होते हैं तो फिर कोई बात नहीं है।' सचमुच ऐसा ही हुआ। उसने ईमानदारी और दृढ़ अध्यवसाय से काम किया, बुराइयों से बचा रहा, परिणाम यह आया-वह सफल हो गया, दुनिया का एक बड़ा आदमी बन गया। जिस व्यक्ति में यह आत्म-विश्वास जाग जाता है कि मैं अपने गुणों के कारण अपने जीवन में महान बन सकता हूं और बड़ा काम कर सकता हूं, सफल हो सकता हूं, वह निश्चित ही सफल हो जाता है। मृगापुत्र के मन में यह विश्वास पैदा हो गया- 'मैं मुनि बनूंगा और बहुत सफल मुनि बनूंगा।' उसने पूरे आत्म-विश्वास के साथ माता-पिता के सामने अपनी बात रखी, अपना तर्क संगत पक्ष रखा। जहां तर्क चलता है वहां जिसका तर्क कमजोर होता है, वह दब जाता है। मृगापुत्र का तर्क बहुत मजबूत था, माता-पिता सचमुच सोचने के लिए विवश बन गए। मृगापुत्र के सामने सत्य एक समुद्र जैसा था। माता-पिता के सामने एक छोटी-सी तलैया थी। राज्य और वैभव एक छोटी तलैया है, जिसमें आदमी डुबकी लगाता है तो पूरा डूब ही नहीं पाता और पूरा ऊपर भी नहीं आ पाता। उस तलैया के नीचे तो दल-दल भरा पड़ा है। मृगापुत्र के सामने सत्य का एक विशाल समुद्र-सा लहरा रहा था, वह उसका साक्षात कर रहा था। इस स्थिति में उसके तर्क अकाट्य बन गए। माता-पिता ने सोचा-क्या करें? क्या आज्ञा दें? नहीं! नहीं!! एक प्रयत्न फिर करना चाहिए। कोई भी आदमी सीधे हार नहीं मानता। छोटे से छोटा आदमी भी हार स्वीकारना नहीं चाहता। वे माता-पिता थे। माता-पिता होने का गर्व भी होता है। जो स्वयं को बड़ा मानता है, वह छोटे को छोटा ही मानेगा, चाहे वह कितना ही होशियार क्यों न हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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