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________________ २२८ महावीर का पुनर्जन्म सांसारिक प्रवृत्तियों में बिताए। पचास वर्ष का हो जाने पर सारे सांसारिक झंझटों को छोड़ विरक्त हो जाए। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में रहे। उसके बाद योग के द्वारा शरीर का त्याग करे। यह बात शायद कालिदास के समय में दूसरों के प्रभाव से आई है। आश्रम-व्यवस्था में भी यह संन्यास परम्परा का प्रभाव है। तीन पुरुषार्थ में संन्यास की बात नहीं थी और यह बाद में जुड़ी है। जैन परम्परा की जीवन-शैली हम जैन परम्परा की जीवन-शैली को देखें। प्राचीन काल में कुछ लोग मध्यम वय में दीक्षा लेते थे, कुछ अल्प-वय में और कुछ अंतिम-वय में। उस समय मध्यम-वय या अल्प-वय में दीक्षित कम होते थे। इस अवस्था में दीक्षा लेना सामान्य बात नहीं थी। ऐसा लगता है—प्राचीन काल में अधिकांश लोग अंतिम-वय में दीक्षा लेते थे। आज कोई वृद्ध व्यक्ति दीक्षा लेता है तो लोग आश्चर्य करते हैं। एक परम्परा रही-पहले राजा बने, राज्य का संचालन किया और फिर ऋषि बने। चक्रवर्ती भरत ने पूरे भारत वर्ष पर शासन किया, लम्बे समय तक राज्य संचालन किया और उसे छोड़ अंतिम वय में मुनि बन गए। राजा सगर भी ऐसे ही मुनि बने थे। सागर के साठ हजार पुत्र थे। इतने पुत्रों का पिता, राज्य और परिवार को छोड़कर मुनि बन गया। एक नगर की जितनी आबादी होती है, उतना राजा सागर का परिवार था। वह एक युग था-प्रायः राजा राज्य का संचालन करते और उसका त्याग कर मुनि बन जाते। अंतिम वय में मुनि बनने वाले राजाओं की प्रलम्ब परम्परा इसका साक्ष्य है। केवली नौ वर्ष का एक परम्परा रही जघन्य अवस्था में मुनि बनने वालों की। महावीर से पूछा गया- 'भंते! केवली किस अवस्था में बनता है?' भगवान ने उत्तर दिया-'नौ वर्ष की अवस्था में व्यक्ति केवली बन जाता है।' नौ वर्ष, गर्भ के नौ महीनों सहित हैं। बाल मुनि की दीक्षा हो रही थी। लोगों ने कहा-'इतनी छोटी सी अवस्था में दीक्षा! अभी तो मात्र नौ वर्ष का है। मैंने कहा-'यह तो नौ वर्ष की अवस्था में मुनि बन रहा है किन्तु आगम कहते हैं-नौ वर्ष का बालक केवली बन जाता है। जब नौ वर्ष का बच्चा केवली बन जाता है तब श्रमण बनना कौनसी बड़ी बात है।' सत्तर-अस्सी वर्ष के व्यक्ति मुनि नहीं बन पाते और नौ वर्ष का बालक मुनि बन जाता है। मुनित्व की दृष्टि से पहली अवस्था नौ वर्ष की है। दूसरी है मध्यम वय की अवस्था। बीस वर्ष से चालीस वर्ष के बीच की आयु वाले व्यक्ति मुनि बनते हैं। ऐसी मुनियों की संख्या भी कम नहीं है। तीसरी अवस्था है वार्धक्य की। प्रथम वय-बचपन में मुनि बनना आश्चर्य नहीं है। दूसरी वय-यौवन में मुनि बनना भी आश्चर्य नहीं है किन्तु तीसरी अवस्था में मुनि न बनना सबसे बड़ा आश्चर्य है। व्यक्ति साठ वर्ष का हो जाए और उसमें मुनि बनने की भावना न जागे, क्या यह आश्चर्य नहीं है? आज अपेक्षा है-जैनों की जीवन-शैली निश्चित की जाए। एक भाई ने लिखा-'आचार्यजी! मैंने सुना है-आपने जीवन की शैली निर्धारित की है, उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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