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राजर्षियों की परंपरा
शिष्य ने जिज्ञासा की- 'गुरुदेव! पुरुषों के लिए बहत्तर और स्त्रियों के लिए चौसठ कलाएं बतलाई गई हैं। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो सारी कलाओं को जानता है? एक व्यक्ति बहत्तर कलाओं को पढ़ सकता है, पर उन्हें जान जाए, यह बहुत मुश्किल है। पढ़ना जितना आसान है उतना ही कठिन है उसमें दक्ष या निपुण होना। क्या इस स्थिति में एक व्यक्ति इतनी सारी कलाओं का ज्ञाता हो सकता है?'
गुरु ने कहा- 'जो दो कलाओं को जान लेता है, वह सब कलाओं को जान लेता है।'
उपनिषद्कारों ने कहा- 'जो आत्मा को जानता है, वह सब को जान लेता है। जो आत्मविद् है, वह सर्वविद् है।' आचार्य ने दो कलाओं की ओर संकेत किया है। व्यंग्य की दो कलाएं मानी जाती है। एक है अपनी बुद्धि तथा समझ का न होना और दूसरी है-दूसरे की बात को न मानना। राजस्थान की प्रसिद्ध लोकोक्ति है-स्वयं की उपजें नहीं, औरों की माने नहीं-स्वयं में अक्ल का न होना और दूसरे के परामर्श को अस्वीकार कर देना। आचार्य ने जिन कलाओं की ओर दिशा-निर्देश किया है, उनका सम्बन्ध इन कलाओं से नहीं है।
जीवनं च कलापूर्ण, मृत्युः साप्यतिशायिनी।
स कलां सकलां वेत्ति, रहस्यमनर्योध्रुवम् ।। __ जीवन की कला से भी अतिशायी है मृत्यु की कला। जीवन की कला और मृत्यु की कला के रहस्य को जानना सब कलाओं के रहस्य-सूत्र को जानना है। जो इन कलाओं को जानता है, वह सब कलाओं को जानता है। प्रश्न हो सकता है, क्या जीवन का भी कोई रहस्य है? मृत्यु का भी कोई रहस्य है?
आरण्यक पुत्र श्वेतकेतु पांचाल की सभा में पहुंच गया। राजा प्रवाहण ने पूछा-'तुम्हारे पिता ने तुम्हें क्या पढ़ाया है?'
श्वेतकेतु-'महाराज! मुझे सब विद्याओं में निष्णात बनाया है।' 'कुमार! बताओ, मरने के बाद प्रजा कहा जाती है?' 'महाराज! मैं यह नहीं जानता। मुझे यह नहीं बताया गया।' 'यह प्रजा कहां से आती है? कैसे आती है?' 'महाराज! इसका भी मुझे पता नहीं है?'
'देवयान और पितृयान के मार्ग पहले साथ-साथ चलते है। आगे जाकर कहां अलग हो जाते हैं?'
'इस प्रश्न का उत्तर भी मुझे ज्ञात नहीं है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only
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