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अभओ पत्थिवा ! तुब्भ पचास वर्ष के आदमी से कहा जाए-भीतर मत जाना, हौवा बैठा है तो वह बिलकुल नहीं डरेगा क्योंकि उसमें बुद्धि का विकास हो गया है। जो आत्मस्थ हो जाता है, सन्तुलित बन जाता है, वह कभी नहीं डरता : असन्तुलन भय पैदा करता है। क्रोध आया, भय पैदा हो जाएगा। झूट बोला, भय पैदा हो जाएगा। भय परिणाम है। माया और भय का सम्बन्ध है। आजकल अनेक व्यक्तियों का छोटी अवस्था में हार्टफैल हो जाता है। इसके दो कारण हैं-लोभ और भय। भय से आदमी का हार्ट कमजोर बनता चला जाएगा। जहां आत्मस्थता नहीं आती, वहा भय बना का बना रहता है। भयग्रस्त कौन?
अभय के सन्दर्भ में कहा गया-जो अतिमात्र भय है, पहले उसे क्षय. करना सीखो। पहले यह बात न करो कि सीधे अभय के बिन्दु पर पहुंच जाएं। भय का सर्वथा क्षय बड़ा कठिन है। कितना डरना चाहिए या कितना नहीं डरना चाहिए, क्यों डरना चाहिए और क्यों नहीं डरना चाहिए, इन सूत्रों का विवेक करना हमारे लिए बहुत जरूरी है।
एक प्रश्न है—भयग्रस्त कौन? जो मूढ़ है, वह भयग्रस्त है, जो भयग्रस्त है, वह मूढ़ है। मूढ़ और मूर्ख एक नहीं हैं। मूढ़ वह होता है, जिसमें घनीभूत मूर्छा होती है और मूर्ख वह होता है, जिसमें समझ कम होती है। जो जड़ है, वह भय के स्थान को पकड़ ही नहीं पाता। जो मन से दुर्बल है, वह भी भयभीत रहता है। सारा जगत भय से आकुल है। अभय वास्तव में वह होता है, जो न मूढ़ होता है और न जड़।।
मूढो नित्यं भयग्रस्तः, मूखो भाति भयद्रुतः । मनसा दुर्बलो भीतो, भयभीतमिदं जगत् ।। जडो भयास्पदं सम्यग, न गृह्णाति न चाभयः।
स एवास्त्यभयो लोके, यो न मूढो न वा जडः ।। दूसरों को न डराएं
___भगवान् महावीर की साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-अभय। वह तभी सिद्ध हो सकता है, जब हम यह संकल्प करें-हम दूसरों को डराएंगे नहीं,सताएंगे नहीं, दूसरों को कष्ट नहीं देंगे, अपनी ओर से दूसरों का तिलमात्र भी अनिष्ट नहीं करेंगे। जैसे-जैसे यह चेतना जागती जाएगी, अभय की चेतना अपने आप विकसित होती चली जाएगी। एक ओर अभय की अनुप्रेक्षा करें, दूसरी ओर आरम्भ और परिग्रह का भाव पुष्ट बनता चला जाए तो अभय की साधना विफल हो जाएगी। हम भय और लोभ की भावना को पुष्ट न होने दें, अभय हमारे जीवन में स्वतः घटित होगा।
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