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________________ राजर्षियों की परंपरा 'पितृलोक मरता क्यों नहीं है?' 'यह भी मैं नहीं जानता ।' 'पांचवी आहुति के हवन करने पर आप, सोम, रस आदि पुरुष की संज्ञा को कैसे प्राप्त होते हैं? क्या तुम्हें इनका ज्ञान है?" 'नहीं ।' 'कुमार! तुम्हारे पिता ने तुम्हें क्या सिखाया ? तुम कहते हो - मैं शिक्षित हूं, शिक्षा को उपलब्ध कर चुका हूं। जब तुम इन बातों को नहीं जानते तब तुमने कैसी शिक्षा पायी है?" आज के किसी विद्यार्थी से ये प्रश्न पूछ लिये जाए तो वह क्या उत्तर दे पाएगा? जो स्नातक हैं, ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट हैं, डाक्टर या वकील हैं, उनसे यह पूछा जाए - बताइए प्रजा कहां से आती है? प्रजा कहां जाती है? कैसे चली जाती है? क्या वे इन प्रश्नों को समाहित कर पाएंगे? २२५ कुमार श्वेतकेतु सीधा अपने पिता के पास आया। उसने पिता से कहा - 'पिताजी! आप कहते हैं- आपने मुझे सारी विद्याएं पढ़ा दी। आपने सारी विद्याएं कहां पढ़ाई ? आज मुझे कितनी लज्जास्पद स्थिति का सामना करना पड़ा। राजा प्रवाहण ने मुझसे पांच प्रश्न पूछे। मैं एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। मेरे लिए यह कितनी लज्जा की बात है ।' पिता गौतम में श्वेतकेतु से कहा - 'पुत्र ! इस विद्या पर ब्राह्मणों का अधिकार नहीं हैं। इस विद्या को क्षत्रिय लोग ही जानते हैं ।' गौतम स्वयं राजा प्रवाहण के पास आकर बोले- 'राजन्! मैं कुछ प्रश्न लेकर आया हूं, आप इन्हें समाहित करें ।' राजा प्रवाहण बोले- 'प्रियवर ! आज तक इस विद्या पर क्षत्रियों का अधिकार रहा है। आज पहली बार यह विद्या मैं तुम्हें बता रहा हूं ।' यह छान्दोग्य उपनिषद् की घटना है। ऐसी ही घटना का उल्लेख बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है। उसमें राजा प्रवाहण आरण्यक से कहता है - ' इससे पूर्व यह विद्या किसी ब्राह्मण के पास नहीं रही है । आज पहली बार मैं तुम्हें यह विद्या बताऊंगा।' उपनिषदों को पढ़ने वाला व्यक्ति इस बात को बहुत सरलता से जान सकता है - आत्मविद्या पर एक मात्र क्षत्रियों का अधिकार रहा है। क्षत्रियों ने ब्राह्मणों को यह विद्या सिखाई। इस सचाई को पुष्ट करने वाले अनेक प्रमाण मिलते हैं । आत्मविद्या की परम्परा : अग्निविद्या की परम्परा दो परम्पराएं स्पष्ट रूप से सामने आती हैं । एक परम्परा थी — आत्मविद्या की परम्परा, क्षत्रियों की परम्परा । जैन आगमों में कहा गया - तीर्थंकर क्षत्रिय होता है । इस कथन में एक रहस्य छिपा है । क्षत्रिय का अर्थ जाति नहीं, क्षत्रिय की परम्परा है। क्षत्रिय परम्परा का तात्पर्य है - आत्मविद्या का ज्ञाता । जो आत्मविद्या को जानता है, वही तीर्थंकर होता है । जो आत्मविद्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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