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________________ महावीर का पुनर्जन्म मिला। जो व्यक्ति अभावों के बीच रहता हुआ भी भाव को देखता है, वह सदा प्रसन्न रहता है। आचार्य भिक्षु अभावों के बीच सदा प्रसन्न रहे। उन्हें कोई अप्रसन्न नहीं बना सका, दुःखी नहीं बना सका। वे अभाव में भी भाव को ढूंढते रहे। यदि व्यक्ति अभाव की दिशा में जाएगा तो उसे अप्रसन्नता मिलेगी। कोई भी जीवन ऐसा नहीं है, जिसमें भाव बिलकुल न हो या अभाव बिलकुल न हो, मात्रा भेद हो सकता है किसी के जीवन में अभाव ज्यादा हो सकता है, किसी के जीवन में भाव ज्यादा हो सकता है। किसी के जीवन में असुविधा ज्यादा है, किसी के जीवन में सुविधा ज्यादा है पर असुविधा और सुविधा, अभाव और भाव प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है। सुख एवं दुःख का स्रोत व्यक्ति की दृष्टि में निहित है। अगर वह अभाव को देखता चला जाए तो जीवन में दुःख ही दुःख उपलब्ध होगा और अगर वह भाव को देखता चला जाए तो जीवन में सुख ही सुख होगा, दुःख को अवकाश ही नहीं मिलेगा। प्रश्न पूछा गया—यह जगत् सुखमय है या दुःखमय? उत्तर दिया गया-अज्ञस्य दुःखौघमयं ज्ञस्यानन्दमयं जगत्-जो अज्ञानी आदमी है, अभाव को देखने वाला है उसके लिए यह जगत् दुःखमय है। जो ज्ञानी है, जिसने अपने आपको जाना है, जो भाव को देखने वाला है, उसके लिए सारा जगत् आनन्दमय है। भाव को देखने वाला आनन्द में डूबा रहता है, उसे अभाव में भी दुःख का बोध नहीं होता। पूज्य कालूगणी का चातुर्मास भिवानी में था। कुछ लोगों ने संकल्प किया-जब तक आर्चायवर भिवानी में रहेंगे, दुकानें नहीं खोलेंगे। चार महीने तक दुकान नहीं खोलना, बड़ा कठिन काम था। दूसरे लोगों ने उनसे कहा-आप क्या कर रहे हैं? चार महीने दुकान नहीं खोलेंगे? कैसे कमाई होगी? कितना नुकसान हो जाएगा, कितना घाटा हो जाएगा? उन्होंने कहा--कुछ भी हो जाए। जब तक आचार्यश्री यहां रहेंगे, हम दुकान नहीं खोलेंगे। जैनों का मुख्य पर्व है संवत्सरी। संवत्सरी के दिन भी दुकान न खोले तो मुसीबत होती है। पर्युषण के आठ दिन भी लोग दुकान बन्द नहीं करते पर वे लोग चार महीने तक दुकान न खोलने का संकल्प कर चुके थे। बहुत सारे लोग दुकान चलाते रहे। उनके आया हुआ माल पड़ा रहा। चौमासा पूरा हुआ। कालूगणी का विहार हो गया। उन्होंने रास्ते की सेवा कर ली। लगभग पांच महीने बाद दुकानें खोली। उस समय एक साथ भाव बढ़े। रोज व्यापार करने वाले कहीं रह गए और न करने वाले छलांग लगा गए। एक साथ पैसा बरस पड़ा। उन्हें नहीं लगा-हमने खोया है। मन की एक वृत्ति होती है कृपणता। जो व्यक्ति कृपण होता है, कंजूस होता है, ज्यादा हिसाब लगाता है उसके पास भी शायद धन आने से थोड़ा संकुचाता है। यह देखा गया है जो दानशील होता है, वह आर्थिक दृष्टि से भी लाभ में रहता है। जो कंजूस होता है, वह मन में समझता है कि मैं बहुत बचाता हूं पर वह बहुत लाभ में नहीं रहता। इसीलिए यह कहावत बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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