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________________ अनुशासन के सूत्र गुरु की प्रसन्नता शिष्य के विकास में बहुत बड़ा निमित्त बनती है। प्रसन्नता जीवन की सार्थकता है। दुनिया में बहुत मूल्यवान् वस्तुएं हैं किन्तु प्रसन्नता से बढ़कर कोई वस्तु मूल्यवान् नहीं है। हीरा, पन्ना, माणक आदि का मूल्य उतना नहीं है जितना मन और भाव की प्रसन्नता का है। जो व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है, उसके लिए ये सारी चीजें गौण हो जाती हैं, अकिंचित्कर बन जाती हैं। जीवन की सफलता का सबसे बड़ा सूत्र है प्रसन्नता। जिसने प्रसन्नता पा ली, प्रसन्न रहना सीख लिया, वह अपने जीवन में धन्य हो गया। प्रसन्नता का निदर्शन एक निग्रो बहुत प्रसन्न रहता था। अमेरिका के एक बड़े लेखक ने पूछा-चाचा ! तुम बहुत साधारण आदमी लगते हो। तुम्हारी अवस्था भी ढल चुकी है, तुम बूढ़े हो गए हो। तुम्हारे पास न पर्याप्त पैसा है और न सुविधाजनक स्थान है। तुम रोज कठिनाइयां झेलते हो फिर भी बहुत प्रसन्न रहते हो। मैं नहीं समझ सका-तुम्हारी प्रसन्नता का रहस्य क्या है? निग्रो बोला-भैया! मैंने होनहार के साथ समझौता करना सीख लिया है, इसलिए कभी अप्रसन्नता नहीं सताती। यही मेरी प्रसन्नता का रहस्य है। जो व्यक्ति परिस्थिति के साथ, वातावरण के साथ, नियति के साथ समझौता करना सीख लेता है, उसे कोई अप्रसन्न नहीं बना सकता। सबसे बड़ा आत्मानुशासन है-जो स्थिति आए, उसके साथ समझौता करना। यदि व्यक्ति परिस्थिति को धिक्कारेगा, उसका तिरस्कार करेगा, उसको कोसेगा तो दुःख बढ़ता चला जाएगा। अगर पांच प्रतिशत दुःख है तो वह पचास प्रतिशत हो जाएगा। अगर दस प्रतिशत है तो वह सौ प्रतिशत बन जाएगा। परिस्थिति के साथ समझौता करने वाले को कोई दुःखी नहीं बना सकता, उसकी प्रसन्नता को कोई बांट नहीं सकता। एक बड़े सूफी संत हुए हैं शेखसादी। उन्होंने एक भिखारी को देखा। भिखारी पंगु था किन्तु अत्यन्त प्रसन्न था। शेखसादी विस्मय में पड़ गए। वे अपने आपको नहीं रोक सके। भिखारी के पास गए। उन्होंने पूछा-'अरे भाई! तुम भीख मांग रहे हो और पैर तुम्हारे टूटे हुए हैं फिर भी तुम्हारे चेहरे पर प्रसन्नता टपक रही है। तुम्हारी प्रसन्नता को देखकर मुझे भी ईर्ष्या होती है। इतना प्रसन्न मैं भी नहीं हूं। क्या कारण है इसका?' भिखारी बोला-'महाशय! मैं भिखारी हूं। मेरे पैर नहीं हैं। भीख मांगकर जीवन चलाता हूं। फिर भी मैं खुदा का धन्यवाद करता हूं। उसने मुझे आंखें दे रखी हैं, हाथ दे रखे हैं। मैं मजे से रोटी खाता हूं, सबको देखता हूं, भीख मांग लेता हूं। एक पैर नहीं है तो क्या हुआ? जो है, उसको छोड़कर, जो नहीं है उसके लिए मैं क्यों रोऊं। शेखसादी यह सुनकर दंग रह गया। आनन्द है भाव-दर्शन में जो अभाव को देखता है वह सदा दुःखी और अप्रसन्न रहता है। जो कुछ प्राप्त है उसकी ओर वह कभी नहीं देखता। उसका सारा ध्यान अभाव में ही अटक जाता है। उसका चिंतन होता है-मेरा यह नहीं हुआ, मुझे यह नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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