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________________ महावीर का पुनर्जन्म इच्छा पैदा हो जाती है । एक दिन में न जाने कितनी इच्छाएं पैदा होती हैं । यदि मनुष्य इच्छा के साथ-साथ चले, जो मन में आए वही कर ले तो एक दिन में ही पूरे समाज की व्यवस्था गड़बड़ा जाए, चारों ओर लूट-खसोट, हिंसा और आतंक फैल जाए । समाज ने अनुशासन सीखा है, उसके स्वरूप को जाना है । प्रत्येक व्यक्ति जानता है - यह मेरा मकान है, इसी में मुझे रहना है । मैं दूसरे के मकान में नहीं रह सकूंगा। मेरा कपड़ा ही मुझे पहनना है । मेरी रोटी ही मुझे खानी है। जब इस अनुशासन को व्यक्ति जानता है तब समाज की व्यवस्था चलती है। इसका अर्थ है - कोई भी व्यक्ति मनमानी बात नहीं कर सकता। जो इच्छा मन में पैदा होती है, वह उसमें कांट-छांट करता है, इच्छा का निरोध करता है। ४ मस्तिष्क का एक हिस्सा है— रीजनिंग माइन्ड - विवेक मस्तिष्क । उसका काम है-इच्छा की कांट-छांट करते रहना । व्यक्ति के मानस में एक दिन में अनेक इच्छांए पैदा हो जाती हैं पर रीजनिंग मांइड उन्हें बाहर नहीं आने देता । वह पहले ही उनकी कांट-छांट कर देता है। वह कहता है- तुम्हारे लिए यह सोचना ठीक नहीं है, यह इच्छा करना ठीक नहीं है । इस प्रकार कांट-छांट होती रहती है। यह इच्छा की कांट-छांट करना ही अनुशासन का स्वरूप है। जो अनुशासित व्यक्ति है, वह मनमानी नहीं करेगा, इच्छा की कांट-छांट करेगा। वह सोचेगा - यह काम मुझे नहीं करना चाहिए, यह मेरा कर्तव्य नहीं है । यह कार्य मेरे लिए अच्छा नहीं है। मैं यह काम करूंगा तो गुरु क्या समझेंगे? दूसरे लोग क्या समझेंगे? व्यक्ति के भीतर पहले यह अनुशासन चलता है और ऐसा करते-करते एक दिन आत्मानुशासन जाग जाता है, उसका चिंतन बदल जाता है । वह यह नहीं सोचता - दूसरे क्या समझेंगे? गुरु क्या कहेंगे? वह कहेगा-मेरे लिए यह उचित नहीं है। मैं इस कार्य को नहीं करूंगा। वह आरोपण की भूमिका से हटकर सहज अवस्था में स्वयं को प्रतिष्ठित कर लेता है । सफलता का सूत्र : प्रसन्नता अनुशासन के दो फल हैं - प्रसाद और समता । अनुशासित व्यक्ति पर आचार्य प्रसन्न हो जाते हैं। वे प्रसन्न होकर उसे प्रचुर ज्ञान देते हैं, उसके आध्यात्मिक पथ को निर्बाध बनाने में योगभूत बनते हैं । अनुशासनहीन व्यक्ति को यह सब उपलब्ध नहीं हो सकता। वह अनुशासित शिष्य पर गुरु की प्रसन्नता को देखकर क्षुब्ध हो जाता है, ईर्ष्या से भर जाता है । वह सोचता है-आचार्य उस पर प्रसन्न हैं उसे अधिक लाभ देते हैं, अधिक ज्ञान देते हैं, केवल उसके ही विकास पर ध्यान दे रहे हैं। मेरी ओर उनका ध्यान ही नहीं है। आचार्यश्री सब कुछ उसी को बता रहे हैं, मुझे कुछ भी नहीं बता रहे हैं । वे उसी को महत्व दे रहे हैं, उसी का मूल्यांकन कर रहे हैं। मेरा कोई अंकन नहीं करते, किन्तु वह यह नहीं सोचता- मैं कितना अनुशासित हूं, कितना विनीत हूं। गुरु का ही दोष सामने आता है। गुरु पक्षपात करते हैं, न्याय नहीं करते। वह आचार्य पर ऐसा दोषारोपण करता है किन्तु स्वयं अनुशासित या विनीत बनने का प्रयत्न नहीं करता, गुरु का प्रसाद पाने को आराधना नहीं करता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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