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________________ ३४ अभओ पत्थिवा ! तुब्भं प्रत्येक व्यक्ति अभय होना चाहता है, वह सदा भय से मुक्त होने की चर्चा करता रहता है। वस्तुतः जो दूसरों को डराता है, वह डर की चर्चा करने का अधिकारी नहीं है। अभय के लिए सबसे पहले डराने की बात छोडें, फिर डरने की बात ही नहीं आएगी। डरो मत, अभय बनो, इसके स्थान पर यह सूत्र होना चाहिये-'डराओ मत।' यह सूत्र बनेगा तभी 'न डरो' का सूत्र मजबूत बनेगा। भगवान महावीर ने दोनों बातें एक साथ कहीं-णो भायए णो वि य भावियप्पा-डरो मत और डराओ मत। इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। राजर्षि ने राजा संजय से कहा- मैं तुम्हें अभयदान देता हूं पर तुम भी दूसरों को मत डराओ। तुम अभयदाता बनो। इस अनित्य जीव लोक में हिंसा में आसक्त क्यों हो रहे हो?' अभओ पत्थिवा! तुब्भ, अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि, कि हिंसाए पसज्जसि? यह अभय का बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। जहां व्यवहार का जीवन है, सामाजिक और संस्थागत मल्यों का जीवन है, वहां बहुत बार डरना पड़ता है और डरना जरूरी भी हो जाता है। हम डरें तो बुद्धिमानी के साथ डरें। बुद्धि और डर एक बात है। जड़ और डर दूसरी बात है। मूर्ख वह होता है, जिसमें मूर्खता होती है और जड़ वह होता है, जो अपने खतरों से भी अनजान रहता है। न मृर्खता, न जड़ता किन्तु बुद्धि के साथ डरें। चूल्हा जलता है तो आदमी उसमें हाथ नहीं डालेगा। चूल्हा बुझा हुआ है तो वह हाथ से उसे साफ कर देगा क्योंकि उसमें समझ होती है। बुद्धि और अभय, बुद्धि और भय-ये दोनों बातें साथ में होनी चाहिए। हम जड़ नहीं हैं कि खतरों से अनजान रहें। अभय कहां है? कहा जाता है—एक आतंकवादी डरता नहीं, सैनिक भी डरता नहीं। यह सही नहीं है। सैनिक अभय कहा है? वह तो इतना भयभीत है कि शस्त्रों से लदा रहता है। अगर अभय होता तो शस्त्र कभी हाथ में लेता ही नहीं। एक योद्धा कभी अभय नहीं हो सकता, आतंकवादी कभी अभय नहीं हो सकता और अभय कोई जड़ भी नहीं हो सकता। जड़ में खतरे का भान नहीं होता। अभय वह होता है, जिसमें बुद्धि का विकास होता है। अभय की पहली शर्त है-बौद्धिक विकास। जो बुद्धिहीन हैं वे अभय नहीं हैं क्योंकि उनमें चेतना विकसित ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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