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________________ महावीर का पुनर्जन्म कहेगा - मुझे सलाह देने आया है । खुद तो अपना ध्यान ही नहीं रखता और मुझे सीख देता है 1 २२० 'सम्यक ग्रहण न करना' - एक बहुत बड़ी संक्रामक बीमारी है । एक-दो नहीं, किंतु प्रत्येक व्यक्ति इससे ग्रस्त है । प्रत्येक व्यक्ति कहता है- 'तुम अपना ध्यान रखो, दूसरे की चिंता छोड़ो।' वह अच्छी प्रेरणा को भी सम्यक स्वीकार नहीं करता किन्तु प्रतिक्रिया करता है। वह सोचता है-कब मैं उसकी बात को पकडूं और कहूं—तुम स्वयं क्या कर रहे हो? जब तक यह नहीं कह देता तब तक उसे पूरा चैन भी नहीं पड़ता। एक प्रकार से मानसिक बेचैनी जैसी स्थिति बन जाती है । उसे तब तक संतोष नहीं मिलता जब तक वह सामने वाले व्यक्ति की बुराई को पकड़ नहीं लेता । साधुता की शोभा विनम्रता साधुता की शोभा है। प्राचीन साधुओं की जीवनियां पढ़ें । जितने भी अच्छे साधु हुए हैं, वे अत्यन्त विनम्र थे । जैन परम्परा में और अन्य परम्पराओं में भी ऐसे साधुओं का प्रचुर उल्लेख मिलता है । साधु कहीं भी मिल सकता है, सज्जनता कहीं भी मिल सकती हैं। भद्रता, उच्चता और विशालता - ये किसी देशकाल से बंधे हुए नहीं है। ऐसे-ऐसे विलक्षण संत हुए हैं, जिन्होंने हर बात को सहा है। आचार्य भिक्षु की जीवनी को पढ़ें, उन्होंने बहुत सहा है । प्रत्येक बात को सम्यक ग्रहण करना उनके जीवन की विशेषता थी । जो आदमी हर बात को सम्यक ले लेता है, उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता । बुद्धिमान आदमी वही होता है, जो बुराई में से अच्छे प्रसंग निकाल लेता है । जिस आदमी में विशालता होती है, उसमें महानता जागती है । गुरुता और बड़प्पन के लिए इन छोटी-छोटी बातों से बचना बहुत आवश्यक है । आदमी को अनेक बार सहना पड़ता है। यह सहना उसमें बड़प्पन लाता है और न सहना छुटपन लाता है। अगर छोटे व्यक्तियों से निम्नता का व्यवहार करोगे तो जीवन भर वे तुम्हारे सामने बोलते ही रहेंगे। खुद में महानता नहीं होती है, छिछलापन होता है तो व्यक्ति जीवन भर छोटा ही बना रहता है । जब एक मुनि की महानता और विशालता कम होती है, उसमें शुद्धता की वृत्ति जन्म नहीं लेती है तब साधुता सिसक उठती है । साधुता के सिसकते रूप को बदलने के लिए बुद्धिमानी और शालीनता की जरूरत है, विशालता और महानता की जरूरत है । यदि व्यक्ति बुद्धिमान होता है, उदात्त और महत्तम प्रकृति का होता है तो प्रत्येक घटना में से महान बनने का बिंदु खोज लेता है । जो व्यक्ति सम्यग आचरण और व्यवहार करना जानता है, वह सारे विवादों को शांत कर देता है, समाधि का जीवन जीता है और पुण्यश्रमण बन जाता है। इस सूत्र पर निरन्तर मनन किया जाये तो साधुता समर्थ और शक्तिशाली बनती चली जाएगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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