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जहां साधुता सिसकती है
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की मनोवृत्ति विवाद को उकसाने की होती है । विवाद का प्रसंग नहीं होता है तो भी वे जानबूझ कर विवाद को पैदा कर देते हैं। I वे हर बात को विवाद का रूप दे देते हैं। भगवान महावीर ने इसी मनोवृत्ति की ओर संकेत किया है । विवाद च उदीरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा । वुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ||
दो शब्द हैं-संवाद और विवाद । संवाद का अर्थ होता है जुड़ जाना । विवाद का मतलब है टूट जाना, बिखर जाना । प्रत्येक बात को सम्यक ग्रहण करने से संवाद बनता है किंतु मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह हर बात में विवाद खड़ा कर देता है । मूल बात तो जहां की तहां रह जाती है और एक नया अध्याय उसके साथ जुड़ जाता है। यह मानवीय प्रकृति की बहुत बड़ी समस्या है । महावीर ने जीवन शैली का महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया - विवाद के स्थान पर संवाद करना सीखो।
विवाद और कलह
विवाद, विग्रह और कलह-यह एक श्रृंखला है। पहले विवाद शुरू होता है, फिर बढ़ते-बढ़ते विग्रह बन जाता है । विवाद बढ़ा, खींचातानी हुई और कलह हो गया । कलह की समस्या शाश्वत समस्या है। आदमी बहुत कलह करता है पर कलह होता क्यों है? अगर हम इस प्रश्न की मीमांसा करें तो साफ होगा — कलह सीधा नहीं होता। वह शुरू होता है विवाद से । विवाद बढ़ते-बढ़ते विग्रह का रूप ले लेता है, उसमें आग्रह और जुड़ जाता है । विवाद, आग्रह और विग्रह की परिणति है कलह ।
महावीर ने कहा - 'जो मुनि महाव्रती होते हुए भी इन तीन चीजों का प्रयोग करता है, वह पापश्रमण है । आग्रह करने वाला, विग्रह करने वाला और विवाद करने वाला मुनि पापश्रमण है'। मुनि के लिए कहा गया- जहां विवाद बढ़े, वहां वह तत्काल अपनी आत्मरक्षा करे। आत्मरक्षा का उपाय है-मौन हो जाना । विवाद वहीं समाप्त हो जाएगा।
प्रकृति का चित्रण
उत्तराध्ययन के सतरहवें अध्ययन में सर्वांग जीवन शैली के पक्ष और प्रतिपक्ष का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। जयाचार्य ने दो गीतिकाएं बनाई - 'खोड़ीली प्रकृति नो धणी' और 'चोखी प्रकृति नो धणी' । इन दोनों गीतिकाओं से मनुष्य की प्रकृति का जीवन्त वर्णन है । इस संदर्भ में जयाचार्य ने एक सुन्दर घटना प्रस्तुत की है- 'कोई व्यक्ति कपड़ा सी रहा है और बात भी कर रहा है। किसी ने कहा- कपड़ा भी सी रहे हो और बात भी कर रहे हो । कहीं सूई की न लग जाये, इसलिए बातें मत करो।' वह प्रत्युत्तर में कहता है- 'मुझे क्या कह रहे हो, तुम सावधान रहना, कहीं तुम्हारे न लग जाए ।' जयाचार्य ने कहा – 'ऐसा व्यक्ति खोड़ली प्रकृति का धणी होता है ।'
महावीर की भाषा में ऐसा मुनि पापश्रमण होता है, साधुओं के ऐसे
कोई बच्चा भी कहे तो अच्छी नहीं होती,
आचरण से साधुता सिसक उठती है। यदि अच्छी बात Jain Educaउसे स्वीकार कर लेना चाहिए । किन्तु जिसकी प्रकृति
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