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जहां साधुता सिसकती है
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सोचते और देखते हैं। बड़े लक्ष्य की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। वे केवल दृश्य में उलझ जाते हैं, अदृश्य जगत उनके लिए अगम्य बन जाता है। तब तक परा प्रेक्षा नहीं जागी, जब तक अलौकिक पद प्राप्त नहीं होगा।'
शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव! यह अलौकिक पद क्या है?' गुरु ने कहा-'पढ़े बिना पता नहीं चलता। श्रुत स्वाध्याय ही एक ऐसा उपाय है, जिसके द्वारा हम परोक्ष को प्रत्यक्ष कर सकते हैं। स्वर्ग किसने देखा है? नरक किसने देखा है? स्वाध्याय के द्वारा प्रत्यक्ष हो सकता है। श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष करा देता है। नई-नई बातें श्रुत के द्वारा प्राप्त होती हैं। जब श्रुत नहीं होता है तब अज्ञान होता है। आदमी नई बात से भी भड़क जाता है।'
स्वाध्याय का, ज्ञानार्जन का बहुत बड़ा मूल्य है। अगर वर्तमान की पीढ़ी ज्ञानवान नहीं होती है, दूरदर्शी नहीं होती है तो उसका परिणाम भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है। यह एक बहुत बड़ा शाश्वत सत्य है। वर्तमान की पीढ़ी पर दो दायित्व होते हैं-अतीत का दायित्व यानि अपने पुरखों के प्रति दायित्व और भावी पीढ़ी के प्रति दायित्व यानि अपने बच्चों के भविष्य-निर्माण का दायित्व। जो वर्तमान की पीढ़ी अपनी बात सोचती है, अपने तक सोचती है, वह बहुत खतरनाक पीढ़ी होती है। अपने द्वारा किया हुआ कार्य भावी पीढ़ी पर क्या प्रभाव डालेगा? यह सोचना दूरदर्शिता है। यदि यह दूरदर्शिता नहीं होती है तो भावी पीढ़ी वर्तमान पीढ़ी को सदा कोसती रहती है। जीवन का लक्ष्य
रोटी, कपड़ा और मकान जीवन का लक्ष्य नहीं है। जीवन का लक्ष्य होना चाहिए-निरन्तर नए तथ्य की प्राप्ति और वह स्वाध्याय से संभव है। जो गृहस्थ एक दिन में कोई नई बात नहीं पढ़ता, नई जानकारी नहीं लेता, वह केवल खाने-पीने के लिए ही जीवन धारण करता है? यदि वह केवल इनके लिए ही जी रहा है तो मनुष्य जीवन की व्यर्थता इससे बड़ी क्या होगी? मनुष्य जीवन की सार्थकता ज्ञानार्जन से है। मनुष्य को ज्ञान की, जानने की शक्ति मिली है। अगर उसका वह कोई उपयोग नहीं करता है तो उससे बड़ी जीवन की कोई निरर्थकता नहीं हो सकती।।
____एक अच्छे मुनि का लक्षण है-स्वाध्यायशील होना पर स्वाध्याय में बड़ी बाधा है-आलस्य और निद्रा। महावीर ने कहा-जो साधु बन गया और केवल आहार, पानी और नींद में अपना जीवन बिताता है, वह पापश्रमण है।
चिन्तन का प्रश्न है-यदि साधु का सारा समय प्रमाद में बीतता है, केवल आहार पानी, गोचरी आदि में बीतता है, न स्वाध्याय और ध्यान होता है, न कोई विकास के लिए चिन्तन होता है, न अध्यात्म की यात्रा आगे बढ़ती है तो इस स्थिति में क्या साधुता नहीं सिसकती? साधुता सोचती है-मुझे कहा जाना था और मैं कहां आ गई?
जब कभी लक्ष्मी किसी कृपण आदमी या दुष्ट आदमी के पास चली जाती है तब वह भी रोती है। वह सोचती है-मैं किसके पल्ले पड़ गई। गलत
स्थान पर आ गई। जैसे लक्ष्मी जैसी शक्तियां गलत स्थान को पाकर सिसकने Jain Education International For Private & Personal Use Only
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