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________________ २१६ महावीर का पुनर्जन्म उत्तराध्ययन में पापश्रमण के लक्षणों का विस्तृत निर्देश है। जो व्यक्ति मुनि जीवन को स्वीकार कर उसके नियमों का सम्यक्तया पालन नहीं करता, दिशा में आगे नहीं बढता. यह पापश्रमण होता है। ऐसे मनि को देख कर साधुता सिसकती है, लज्जित होती है। आचार्यप्रवर बहुत बार कहते हैं-कोई साधु बना और किसी काम में लग गया तो संतोष होता है। यह विश्वास जम जाता है कि वह अपने जीवन को ठीक चलाएगा। यदि साधु किसी काम में नहीं लगता है, न स्वाध्याय करता है, न ध्यान, न सेवा और न तपस्या करता है तो बड़ा खतरा बना रहता है। पूज्य कालुगणी कहा करते थे-जो साधु प्रारम्भ में ही बातों में लग जाता है, वह बिगड़ जाता है, उसका जीवन नहीं सुधर सकता। आहार करना, पानी पीना, नींद लेना, कपड़े पहनना और जीवन-चर्या चलाना एक साधु के लिए सामान्य बात है। यह तो एक गृहस्थ भी करता है। इसमें साधुता की कोई अतिरिक्त बात नहीं है। स्वाध्याय । स्वाध्याय, ध्यान, पवित्र भाव और तप-ये चार साधु की कसौटियां हैं। जो इन कसौटियों का पालन नहीं करता, इनसे विरत रहता है, वह पापश्रमण होता है। पवित्रश्रमण की पहली कसौटी है-स्वाध्याय। पवित्रश्रमण स्वाध्यायशील होता है। पापश्रमण का स्वाध्याय में मन नहीं लगता। उसका बात करने में जितना रस है, पढ़ने में उतना रस नहीं है। यह केवल आज की बात नहीं है, हजारों वर्ष पूर्व भी ऐसी मनोदशा रही है। नव दीक्षित शिष्य से आचार्य ने कहा- 'तुम स्वाध्याय करो, पढ़ना शुरू करो।' 'महाराज! क्यों पढूं?' 'पढ़े बिना पूरा ज्ञान नहीं होता। 'महाराज! मुझे ज्ञान की जरूरत क्या है? आपकी कृपा प्राप्त हो गई है, वरदहस्त प्राप्त हो गया है, फिर चिन्ता किस बात की है? एक व्यक्ति को मकान, कपड़े, रोटी और पानी चाहिए, ये सभी आपकी कृपा से मिल रहे हैं।' ‘सारी बातें तो मिल रही हैं पर पढ़े बिना पता कैसे चलेगा कि कहां क्या हो रहा है?' महाराज! 'मुझे सारा पता है कि कहां, कौन, क्या कर रहा है।' । आचार्य ने कहा-'प्रेक्षा दो प्रकार की होती हैं। एक का नाम है अपरा और दूसरी का नाम है परा। जो अपरा प्रेक्षा है, वह लौकिक है, वर्तमानदर्शी है। परा प्रेक्षा अलौकिक है, दूरदर्शी है। वह केवल जो सामने है, वर्तमान में उपलब्ध है, उसी को नहीं देखती, दूर तक की बात को देखती है। अपरा तोषमायाति प्रेक्षा संप्राप्य लौकिकम्। परा त दूरदर्शित्वाद अलौकिकपदं व्रजेत।। सबसे कठिन है पर को देखना। हमारी इन्द्रियों की, बुद्धि और चिन्तन की सीमा अत्यन्त छोटी है। जो लोग इनकी सीमा में जीते हैं, वे छोटी बात को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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